how to Control Water in Crops | Khet Me pani Kaise Control Karen | फसल में पानी को कैसे नियंत्रित करें
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औषधीय पौधों की खेती से आजीविका सृजन की सोच तभी हकीकत की जमीन पर उग सकती है, जब इसकी खेती की राह में आने वाली बुनियादी अड़चनों की पड़ताल कर प्राथमिकता से उनके हल खोजे जाएं। इस विजन में कोई शक नहीं कि औषधीय पौधों की खेती न केवल भारत की कृषि आर्थिकी का चेहरा बदल कर रोजगार एवं आजीविका सृजन के लिए वरदान साबित हो सकती है, बल्कि आयुर्वेद में भारत को दुनिया का सिरमौर बना सकती है। असीम संभावनाएं के इस आकाश में ऊंची उड़ान तभी भरी जा सकती है,जब धरातल की जमीन पर पूरी तैयारी हो।
पोस्ट हार्वेटिंग तकनीक
वर्तमान में आलम यह है कि जड़ी- बूटियों की खेती के लिए उदार वित्तीय अनुदान तो दिया जा रहा है, लेकिन अगर बात बीज व क्वालिटी प्लांटिंग मैटीरियल की हो तो हमारे हाथ खाली हैं। हम बीज और पौध का प्रबंध करना भूल गए हैं। जिन औषधीय पौधों की बाजार में मांग है, उनकी वैल्यू एडिशन के लिए उपकरणों की व्यवस्था भी अभी तक दूर की कौड़ी है। पोस्ट हार्वेटिंग तकनीकों की कमी यहां साफ खलती है।
मार्केटिंग मकैनिज्म
अगर कोई किसान जड़ी- बूटियों की खेती करने की पहल करे भी तो उत्पाद को बेचने की व्यवस्था इतनी लचर है कि उसे बेचारा बनना पड़ता है। अभी तक न जड़ी- बूटियों के न्यूनतम मूल्य घोषित करने के प्रस्ताव सिरे चढ़े हैं और न इन उत्पादों की ब्रिकी के लिए विशेष मंडियों अथवा कलेक्शन सेंटर की कोई व्यवस्था हो पाई है। ऐसे में जड़ी- बूटियों के उत्पादकों को बिचौलियों के हाथों लुटने को मजबूर होना पड़ रहा है। आयुर्वेद दवाईयां बनाने वाली कंपनियां भी किसानों की उपज को न्यूनतम मूल्य पर खरीद कर उनके शोषण में कहीं पीछे नहीं हैं।
लीगल प्रिक्योरमेंट सार्टिफिकेट
पहाड़ों से लुप्त और लुप्तप्राय हो रहे दिव्य औषधीय पौधों के संरक्षण और उनकी ख्ेाती करने में अलग तरह की समस्याएं हैं। यहां लीगल प्रिक्योरमेंट सार्टिफिकेट की बाध्यता की शर्त किसानों की राह की सबसे बड़ी रूकावट है। जड़ी- बूटियों की खेती का जिम्मा तो आयुष विभाग के पास है, लेकिन लीगल प्रिक्योरमेंट सार्टिफिकेट वन विभाग की ओर से जारी किया जाता है। यह किसी से छुपा नहीं है कि इन दोनों विभागों में आपसी तालमेल के अभाव में यह सार्टिफिकेट हासिल करना किसानों के लिए कितनी टेढ़ी खीर है।
जमीन के मुद्दे
हिमालयी क्षेत्र जहां उच्च मूल्य वाले औषधीय पौधों की खेती हो सकती है, वहां के किसानों का दुखड़ा दूसरा है। इन क्षेत्रों में जहां ज्यादातर भूमि वन भूमि है, वहीं किसानों के पास छोटी भू जोतें हैं। वन भूमि पर जड़ी- बूटियों की खेती के लिए स्थानीय लोगों को अधिकार देने जैसे पेचीदा मुद्दों के हल खोजना अभी तक बाकि हैं।
किसान की मदद की जरूरत
बेशक आयुर्वेद का बाजार तेजी से आकार ले रहा है व जड़ी- बूटियों की मांग तेजी से बढ़ रही है। हिमालय की दिव्य औषधियां अपनी गुणवता के चलते आयुर्वेद उद्योग की पहली पंसद बन चुकी हैं, लेकिन जड़ी- बूटियों की वैल्यू चेन की पहली पायदान पर खड़े किसान के सामने समस्याओं का पहाड़ खड़ा है। अगर इस वैल्यू चेन की नींव ही खोखली है तो फिर इस पर आयुर्वेद उद्योग की बुलंद इमारत कैसे खड़ी हो सकती है? किसान को नजरअंदाज करना आयुर्वेद उद्योग के भविष्य के लिए संकट की बात है। जड़ी-बूटियों की खेती से लेकर उनके विपणन की व्यवस्था में किसान के हितों की पैरवी किए बिना आगे की सोचना कपोल कल्पना ही होगी।
तालमेल जरूरी
जैव विविधिता के संरक्षण व जड़ी- बूटियों की मूल्य श्रृखंला को मजबूत करने के लिए सबसे पहले तो आयुष विभाग के साथ वन, स्वास्थ्य, कृषि व बागवानी, राजस्व और सहकारिता जैसे कई विभागों को एकजुट होकर संाझा प्रयास करने होंगे। इसमें दो राय नहीं कि किसानों की कृषि आय को दोगुणा करना संभव है, लेकिन इसके लिए उन्हें औषधीय पौधों की खेती की ओर मोडऩा होगा। किसान इस तरफ मुड़ेंगे तभी, जब उन्हें लगेगा कि उनके लिए फायदे का सौदा है। आखिर में इतना ही कहूंगा कि पहले खोजिए हल, तभी होगा सुनहरा कल।
green manure,उत्पादकता बढ़ाने में हरी खाद का प्रयोग
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परिचय
मृदा उर्वरता एवं उत्पादकता बढ़ाने में हरी खाद का प्रयोग अति प्राचीन काल से आ रहा है। सघन कृषि पद्धति के विकास तथा नकदी फसलों के अन्तर्गत क्षेत्रफल बढ़ने के कारण हरी खाद के प्रयोग में निश्चय ही कमी आई, लेकिन बढ़ते ऊर्जा संकट, उर्वरकों के मूल्यों में वृद्धि तथा गोबर की खाद जैसे अन्य कार्बनिक स्त्रोतों की सीमित आपूर्ति से आज हरी खाद का महत्व और भी बढ़ गया है। दलहनी एवं गैर दलहनी फसलों को उनके वनस्पतिक वृद्धि काल में उपयुक्त समय पर मृदा उर्वरता एवं उतपादकता बढ़ाने के लिए जुताई करके मिट्टी में अपघटन के लिए दबाना ही हरी खाद देना है। भारतीय कृषि में दलहनी फसलों का महत्व सदैव रहा है। ये फसलें अपने जड़ ग्रन्थियों में उपस्थित सहजीवी जीवाणु द्वारा वातावरण में नाइट्रोजन का दोहन कर मिट्टी में स्थिर करती है। आश्रित पौधे के उपयोग के बाद जो नाइट्रोजन मिट्टी में शेष रह जाती है उसे आगामी फसल द्वारा उपयोग में लायी जाती है। इसके अतिरिक्त दलहनी फसलें अपने विशेष गुणों जैसे भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ाने प्रोटीन की प्रचुर मात्रा के कारण पोषकीय चारा उपलब्ध कराने तथा मृदा क्षरण के अवरोधक के रूप में विशेष स्थान रखती है।
हरी खाद में प्रयुक्त दलहनी फसलों का महत्व:
दलहनी फसलों की जड़ें गहरी तथा मजबूत होने के कारण कम उपजाऊ भूमि में भी अच्छी उगती है। भूमि को पत्तियों एवं तनों से ढक लेती है जिससे मृदा क्षरण कम होता है। दलहनी फसलों से मिट्टी में जैविक पदार्थों की अच्छी मात्रा एकत्रित हो जाती है। हरी खाद के प्रयोग से मिट्टी नरम होती है, हवा का संचार होता है, जल धारण क्षमता में वृद्धि, खट्टापन व लवणता में सुधार तथा मिट्टी क्षय में भी सुधार आता है| भूमि को को इस खाद से मृदा जनित रोगों से भी छुटकारा मिलता है| किसानों के लिए कम लागत में अधिक फायदा हो सकता है, स्वास्थ और पर्यावरण में भी सुधार होता है| राइजोबियम जीवाणु की मौजूदगी में दलहनी फसलों की 60-150 किग्रा० नाइट्रोजन/हे० स्थिर करने की क्षमता होती है।दलहनी फसलों से मिट्टी के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में प्रभावी परिवर्तन होता है जिससे सूक्ष्म जीवों की क्रियाशीलता एवं आवश्यक पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि होती है।
हरी खाद हेतु फसलों का चुनाव :
हरी खाद के लिए उगाई जाने वाली फसल का चुनाव भूमि जलवायु तथा उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए। हरी खाद के लिए फसलों में निम्न गुणों का होना आवश्यक है।
हेतु फसल शीघ्र वृद्धि करने वाली हो।
हरी खाद के लिए ऐसी फसल होना चाहिए जिससे तना, शाखाएं और पत्तियॉ कोमल एवं अधिक हों ताकि मिट्टी में शीघ्र अपघटन होकर अधिक से अधिक जीवांश तथा नाइट्रोजन मिल सके।
फसलें मूसला जड़ों वाली हों ताकि गहराई से पोषक तत्वों का अवशोषण हो सके। क्षारीय एवं लवणीय मृदाओं में गहरी जड़ों वाली फसल अंतः जल निकास बढ़ाने में आवश्यक होती है।
दलहनी फसलों की जड़ों में उपस्थित सहजीवी जीवाणु ग्रंथियों वातावरण में मुक्त नाइट्रोजन को योगिकीकरण द्वारा पौधों को उपलब्ध कराती है।
फसल सूखा अवरोधी के साथ जल मग्नता को भी सहन करती हों
रोग एवं कीट कम लगते हो तथा बीज उत्पादन को क्षमता अधिक हो।
हरी खाद के साथ-2 फसलों को अन्य उपयोग में भी लाया जा सके।
हरी खाद के लिए दलहनी फसलों में सनई, ढैंचा, उर्द, मॅूग, अरहर, चना, मसूर, मटर, लोबिया, मोठ, खेसारी तथा कुल्थी मुख्य है। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश में जायद में हरी खाद के रूप में अधिकतर सनई, ढैंचा, उर्द एवं मॅूग का प्रयोग ही प्रायः प्रचलित है।
हरी खाद हेतु फसलें एवं उन्नतशील प्रजातियॉ
नरेन्द्र सनई-1 कार्बनिक पदार्थ से भरपूर भूमि में 45 दिन के बाद पलटने से 60-80 किग्रा०/हे० नाइट्रोजन प्रदान करने वाली शीघ्र जैव अपघटन पारिस्थितकीय मित्रवत 25-30 टन/हे० हरित जैव पदार्थ बीज उत्पादन क्षमता 16.0 कु०/हे० प्रति पौध अधिक एवं प्रभावी जड़ ग्रंथियॉ अम्लीय, एवं सामान्य क्षारीय भूमि के लिए सहनशील तथा हरी खाद के अतिरिक्त रेशे एवं बीज उत्पादन के लिए भी उपयुक्त।
पंत ढैंचा-1 कार्बनिक पदार्थों से भरपूर 60 दिन में हरित एवं सूखा जैव पदार्थ, प्रति पौध अधिक एवं प्रभावी जड़ ग्रन्थियॉ तथा अधिक बीज उत्पादन।
हिसार ढैंचा-1 कार्बनिक पदार्थो से भरपूर, 45 दिन में अधिक हरित एवं सूखा जैव पदार्थ उत्पादन, मध्यम बीज उत्पादन, प्रति पौध अधिक एवं प्रभावी जड़ ग्रन्थियॉ। उपरोक्त प्रजातियॉ वर्ष 2003 में राष्ट्रीय स्तर पर विमोचित की गयी है। इन प्रजातियों के बीज की उपलब्धता सुनिश्चित न होने पर सनई एवं ढैंचा की अन्य स्थानीय प्रजातियों का भी प्रयोग हरी खाद के रूप में किया जा सकता है।उर्वरक प्रबन्ध हरी खाद के लिए प्रयोग की जाने वाली दलहनी फसलों में भूमि में सूक्ष्म जीवों की क्रियाशीलता बढ़ाने के लिए विशिष्ट राइजोबियम कल्चर का टीका लगाना उपयोगी होता है। कम एवं सामान्य उर्वरता वाले मिट्टी में 10-15 किग्रा० नाइट्रोजन तथा 40-50 किग्रा० फास्फोरस प्रति हे० उर्वरक के रूप में देने से ये फसलें पारिस्थिकीय संतुलन बनाये रखने में अत्यन्त सहायक होती हैहरी खाद की फसलों की उत्पादन क्षमताहरी खाद की विभिन्न फसलों की उत्पादन क्षमता जलवायु, फसल वृद्धि तथा कृषि क्रियाओं पर निर्भर करती है। विभिन्न हरी खाद वाली फसलों की उत्पादन क्षमता निम्न सारणी में दी गयी है
हरी खाद वाली फसलों की उत्पादन क्षमता
फसल का नाम
हरे पदार्थ की मात्रा (टन प्रति हे.)
नाइट्रोजन का प्रतिशत
प्राप्त नाइट्रोजन
(किग्रा.प्रति हे.)
सनई
20-30
0.43
86-129
ढैंचा
20-25
0.42
84-105
उर्द
10-12
0.41
41-49
मूंग
8-10
0.48
38-48
ग्वार
20-25
0.34
68-85
लोबिया
15-18
0.49
74-88
कुल्थी
8-10
0.33
26-33
नील
8-10
0.78
62-78
हरी खाद देने की विधियॉ (इन सीटू)
हरी खाद की स्थानिक विधि:
इस विधि में हरी खाद की फसल को उसी खेत में उगाया जाता है जिसमें हरी खाद का प्रयोग करना होता है। यह विधि समुचित वर्षा अथवा सुनिश्चित सिंचाई वाले क्षेत्रों में अपनाई जाती है। इस विधि में फूल आने के पूर्व वानस्पतिक वृद्धि काल (40-50 दिन) में मिट्टी में पलट दिया जाता है। मिश्रित रूप से बोई गयी हरी खाद की फसल को उपयुक्त समय पर जुताई द्वारा खेत में दबा दिया जाता है।
हरी पत्तियों की हरी खाद:
इस विधि में हरी पत्तियों एवं कोमल शाखाओं को तोडकर खेत में फैलाकर जुताई द्वारा मृदा में दबाया जाता है। जो मिट्टी मे थोड़ी नमी होने पर भी सड जाती है। यह विधि कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उपयोगी होंती है।
हरी खाद की गुणवत्ता बढाने के उपाय
उपयुक्त फसल का चुनाव :
जलवायु एवं मृदा दशाओं के आधार पर उपयुक्त फसल का चुनाव करना आवश्यक होता है। जलमग्न तथा क्षारीय एवं लवणीय मृदा में ढैंचा तथा सामान्य मृदाओं में सनई एवं ढैंचा दोनों फसलों से अच्छी गुणवत्ता वाली हरी खाद प्राप्त होती है। मॅूग, उर्द, लोबिया आदि अन्य फसलों से अपेक्षित हरा पदार्थ नहीं प्राप्त होता है।
हरी खाद की खेत में पलटायी का समय:
अधिकतम हरा पदार्थ प्राप्त करने के लिए फसलों की पलटायी या जुताई बुवाई के 6-8 सप्ताह बाद प्राप्त होती है। आयु बढ़ने से पौधों की शाखाओं में रेशे की मात्रा बढ़ जाती है जिससे जैव पदार्थ के अपघटन में अधिक समय लगता है।
हरी खाद के प्रयोग के बाद अगली फसल की बुवाई या रोपाई का समय:
जिन क्षेत्रों में धान की खेती होती है वहॉ जलवायु नम तथा तापमान अधिक होने से अपघटन क्रिया तेज होती है। अतः खेत में हरी खाद की फसल के पलटायी के तुरन्त बाद धान की रोपाई की जा सकती है। लेकिन इसके लिए फसल की आयु 40-45 दिन से अधिक की नहीं होनी चाहिए। लवणीय एवं क्षारीय मृदाओं में ढैंचे की 45 दिन की अवस्था में पलटायी करने के बाद धान की रोपाई तुरन्त करने से अधिकतम उपज प्राप्त होती है।
समुचित उर्वरक प्रबन्ध:
कम उर्वरता वाली मृदाओं में नाइट्रोजनधारी उर्वरकों का 15-20 किग्रा०/हे० का प्रयोग उपयोगी होता है। राजोबियम कल्चर का प्रयोग करने से नाइट्रोजन स्थिरीकरण सहजीवी जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ जाती है।
हरी खाद वाली फसलें:
हरी खाद के लिए दलहनी फसलों में सनैइ (सनहेम्प), ढैंचा, लोबिया, उड़द, मूंग, ग्वार आदि फसलों का उपयोग किया जा सकता है। इन फसलों की वृद्धि शीघ्र, कम समय में हो जाती है, पत्तियाँ बड़ी वजनदार एवं बहुत संख्या में रहती है, एवं इनकी उर्वरक तथा जल की आवश्यकता कम होती है, जिससे कम लागत में अधिक कार्बनिक पदार्थ प्राप्त हो जाता है। दलहनी फसलों में जड़ों में नाइट्रोजन को वातावरण से मृदा में स्थिर करने वाले जीवाणु पाये जाते हैं। अधिक वर्षा वाले स्थानों में जहाँ जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सनई का उपयोग करें, ढैंचा को सूखे की दशा वाले स्थानों में तथा समस्याग्रस्त भूमि में जैसे क्षारीय दशा में उपयोग करें। ग्वार को कम वर्षा वाले स्थानों में रेतीली, कम उपजाऊ भूमि में लगायें। लोबिया को अच्छे जल निकास वाली क्षारीय मृदा में तथा मूंग, उड़द को खरीफ या ग्रीष्म काल में ऐसे भूमि में ले जहाँ जल भराव न होता हो। इससे इनकी फलियों की अच्छी उपज प्राप्त हो जाती है तथा शेष पौधा हरी खाद के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है।
डॉ. शिशुपाल सिंह*, शिवराज सिंह1, डॉ विष्णु दयाल राजपूत2रविन्द्रकुमारराजपूत3,
*प्रयोगशाला प्रभारी, कार्यालय मृदा सर्वेक्षण अधिकारी, वाराणसी मंडल, वाराणसी,
shatavar ki kheti kaise karen ? ||asparagus farming ||शतावर की खेती कैसे करें ?
शतावर की खेती कैसे करें ? whatsapp 9814388969
शतावर एक औषदीय खेती (मेडिकल फार्मिंग ) है / इसको आलू की तरह बेड बना के लगा सकते हैं।
पौधे से पौधे की दूरी एक फुट होनी चाहिए। इसमें जियादा रसायन नहीं डालने चाहिए। ये कुदरती खेती है। ये आयुर्वेदि जड़ी बूटीओं में काम आता है।
तैयारी :-
इसकी तैयारी करने के लिए आपको खेत अच्छे से बनाना होगा। और गोबर खाद पचास टन या ट्रीटेड गोबर खाद दो टन डालें। और आलू के खेती की तरह तैयारी करनी होगी। पौध की जड़ों को। अच्छे से ट्रीट करके लगाए। और लगाने के तुरंत बाद हल्का पानी दें।
पानी की सिंचाई :- सर्दिओं में पंद्रह से बीस दिन गर्मिओं में दस से पंद्रह दिन बाद सिंचाई करें।
निराई गुड़ाई :- खरपतवार को रोकने के लिए निराई गुड़ाई करें और बेड को अच्छे से मिटटी लगाएं। और थोड़ा बहुत खाद दे दें।
बीमारी:- इसको थोड़ा बहुत फफूंदी और कीट कभी कभी नुकसान कर सकता है उसके लिए आप खुद द्रव बना सकते हैं या आर्गेनिक ट्रीटमेंट कर सकतें हैं।
पैदावार :- इसकी एक एकर से ढाई टन यानि की 2500 किलो निकलती है। और मंडी भाव करीब चार सो से सात सो रुपये किलो बिकता है। ये डेढ़ साल यानि की अठारह महीने की फसल है।
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What is Nematode नेमाटोड क्या है ?
नेमाटोड एक तरह के बहुत सूक्षम कीट होते हैं जो पौधों की जड़ों को हानि पुहंचाते हैं | ये समस्या अधिकतर रेतीली मिटटी में आती है | नेमाटोड कई तरह के होते हैं तथा हर किस्म के नेमाटोड कुछ ही फसलों को क्षति पुहंचा सकते हैं |
इसके द्वारा ग्रस्त होने वाली फसलें –
नेमाटोड की किस्मों में से एक है – रुट नॉट नेमाटोड, इसके द्वारा प्रभावित होने वाली मुख्य फसलें हैं टमाटर, मिर्च, बैंगन, भेंडी, परमल, धान इत्यादि| ये नेमाटोड सबसे ज़्यादा फसलों पर असर करता है | रुट नॉट नेमाटोड जड़ों को हानि पुहंचाते हैं जिसके कारण जड़ों में गांठे पड़ जाती हैं व पौधे को पोषक तत्व मिटटी से नहीं मिल पाते हैं |
कैसे पहचाने ? –
नेमाटोड की समस्या अगर पहले भी आपके खेत में आयी है तो संभव है की उसी कारण आपके पौधे बढ़ न पा रहे हों | पौधे सुखके मुरझा जाते हैं तथा उनकी जड़ों में गांठे पड़ जाती हैं | नेमाटोड अगर छोटे पौधों पे अटैक करता है तो पौधे नर्सरी में ही मर जाते हैं और रोपाई लायक नहीं हो पाते | अगर कुछ पौधों की रोपाई हो भी जाती है तो उनमे फल और फूल की संख्या बहुत कम होती है |
समाधान व पौधे का संरक्षण –
नेमाटोड की समस्या अगर एक बार किसी खेत में आ जाये तो उससे पूरी तरह से निजात पाना संभव नहीं है |
नेमाटोड के असर को कम करने के लिए जैविक, मैकेनिकल व रासायनिक सभी उपचारों का इस्तेमाल करना अति आवश्यक है |
मैकेनिकल उपचार –
1. गर्मिओं के मौसम में मिटटी की गहरी जुताई करें तथा उसे मल्चिंग शीट्स से ढक कर 1 हफ्ते के लिए छोड़ दें, इसके बाद उसे पानी से 1 हफ्ते तक भरा रखें| इसके बाद फिरसे एक गहरी जुताई करके खेत को मल्चिंग शीट्स से ढक दें | इस तकनीक तो अपनाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखें की खेत में खर पतवार बिलकुल भी उगने न पाएं वरना इस तकनीक से नेमाटोड और बढ़ जायेंगे |
2. क्रॉप रोटेशन – मक्का, सोरगम, सोयाबीन, गेंदा जैसी फसलें रुट नॉट नेमाटोड को कम करने में लाभकारी होती हैं, इसलिए इन फसलों को नेमाटोड ग्रस्त खेतों में लगाएं
जैविक उपचार –
1. नीम आयल (50 %) – नीम के बीजों के तेल से बुवाई व रोपाई से पहले मिटटी भिगोने से नेमाटोड की अच्छी रोकथाम की जा सकती है |
2. खाद – सड़े हुए गोबर की खाद का ज़्यादा उपयोग करने से भी नेमाटोड का असर कम होता है |
3. माईकोरिहज़ा (VAM) – बुवाई से पहले बीजों को माईकोरिहज़ा के पेस्ट से कोट करने से व रोपाई के समय जड़ों को माईकोरिहज़ा के घोल में डुबा कर लगाने से नेमाटोड का असर काफी कम हो जाता है|
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पौधों को धुप और जियादा बारिश से बचाता है जिस से फसल अच्छी रहती है यह घर के लिए अच्छा है। और महगा भी नहीं है।
एचडीपीई का इस्तेमाल किया गया है , नमी को अवशोषित नहीं है।
नेट रासायनिक प्रतिरोधक है। बागवानी और फूलों की खेती में पौधों की सुरक्षा के लिए इस्तेमाल किया जाता है । इसे धोना आसान है।
नेट ले जाने के लिए आसान है और स्थापित करने के लिए आसान है, हल्के होते हैं और जगह बदली जा सकती है।
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Whatsapp Helpline 9814388969 Strawberry Farming pura lecture ache tareeke se dekhne ke liye computer par dekhen ji
जानकारी :- यह के नरम फल है। यह पॉलीहाउस के अंदर और खुले खेत दोनों जगह हो जाता है। स्ट्रॉबेरी दुसरे फलों के मुकाबले जल्दी आमदनी देता है। यह कम लागत और अच्छे मोल का फल है।
स्ट्रॉबेरी में विटामिन -A,B1,B2,नियासिन and vit- C होते हैं। और इसमें मिनरल्स Ca,P and K भरपूर मात्र में होते हैं। एंटी ऑक्सीडेंट से भरपूर फल है।
इस से आइस क्रीम ,कन्फेक्शनरी ,चूइंगम,सॉफ्ट ड्रिंक आदि बनती है। भारत मैं इसकी जियादा खेती उत्तर प्रदेश ,हिमाचल ,कश्मीर और ठन्डे शथल के एरिया में होती है। इसकी खेती पंजाब हरयाणा में भी कर सकते है। अभी इसमें महाराष्ट्र भी लीड कर रहा है। मेघालय सिक्किम और मिजोरम में भी इसकी खेती होने लगी है।
वातावरण और मिट्टी :- चिकनी ,बलुई और अचे पनि निकासी वाली ज़मीन स्ट्रॉबेरी के लिए अच्छी होती है। एसिडिक में PH leve 5.0 to 6.5 होना चाहिए। मिट्टी की नाजुकता तीस से चालीस सेंटीमीटर होनी चाहिए।
जियादा बढ़ावे के लिए बीस से पचीस डिग्री और सात से बारह डिग्री रात मैं
स्ट्रॉबेरी की किस्में
Winter Dawn
KamaRoza
ओफ्रा
कमारोसा
चांडलर
फेयर फॉक्स
ब्लैक मोर
स्वीट चार्ली
एलिस्ता
सीसकेप
स्ट्रॉबेरी की तैयारी
Strawberry Farming strawberry planting
खेत में पौध लगने के लिए
मेट की कतार में 90*45 CM मेट की दुरी 40*45 cm
32000 per acre
80,000 se 85000 Plant पैर हेक्टयेर यानि की 10,000 वर्ग मीटर में लगने चाहिए
पौध लगने का टाइम जुलाई से दसमबर तक होता है विभिन जगह पर विभिन तापमान के हिसाब से।
जड़ को पूरी तरह मिटी में सेट क्र दें। जड़ बहार रहने से सूखने का खतरा होता है। पौध को जियादा तापमान और ठण्ड से इसके ऊपर छाया करनी चाहिए।
स्ट्रॉबेरी की खाद :- 70 to 80 टन गोबर की खाद एक हेक्टयेर में डालें .
ये खाद एक साल में डालनी है बीस टन पौध लगने से पहले। फिर 20:40:40 NPK KG/हेक्टयेर डालने है। अच्छी फसल के लिए यूरिया दो प्रतिशत ज़िंक सलफत्ते, आधा परतिशत ,कैल्शियम सल्फेट आधा प्रतिशत और बोरिक एसिड 0.2 प्रतिशत अच्छी फसल के लिए मान्य है।
सिंचाई :- सिंचाई जल्दी जल्दी लेकिन हलकी करनी चाहिए। जियादा पनि ठीक नहीं है।
पत्ते गीले न करें। तुपका सिंचाई से कम पानी लग सकता है। पानी खाल में ही लगाए।
खरपतवार (नदीन ) :- हाथ से नदीन हटाए या फिर सिमजिन तीन किलो प्रति हेक्टयेर डालें 300 galen पानी के साथ।
मल्चिंग :- खरपतवार ,मिट्टी की गन्दगी से और दुसरे दुष प्रभाव से बचने के लिए और अच्छी फसल के लिए मल्चिंग करें।
Strawberry Farming
मल्चिंग 6 to 7 तापमान में करें
आर्गेनिक मल्चिंग कैसे करें ?
साफ़ सुखी घास धान की वेस्ट बांस के वेस्ट कोको नोट की वेस्ट।
दूसरा तरीका काली प्लास्टिक और पॉलीथिन।
हल्का और लचकीला पदार्थ लें जो की पौधे की रफ़्तार पर असर na डाले
पॉलीथिन ज़मीन में गलता नहीं है। इसको फसल लेने के बाद हटना पड़ेगा।
कीड़े मकोड़े और दूसरी बिमारिओं से धियान रखना जरूरी है। अगर कोई पौध जियादा खराब है उसको हटा दें।
स्ट्रॉबेरी की तुड़वाई :- जब फल का रंग सतर प्रतिशत असली हो जाये तो तोड़ लेना चाहिए। अगर मार्किट दूरी पर है to थोड़ा सख्त ही तोडना चाहिए। तुड़वाई अलग अलग दिनों मैं करनी चाहिए। स्ट्रॉ बेर्री के फल को नहीं पकड़ना चाहिए। ऊपर से दण्डी पकड़ना चाहिए। औसत फल सात से बारह टन प्रति हेक्टयेर निकलता है।
पैकिंग :- स्ट्रॉबेरी की पैकिंग प्लास्टिक की प्लेटों में करनी चाहिए। इसको हवादार जगह पर रखना चाहिए। जहां तापमान पांच डिग्री हो। एक दिन के बाद तापमान जीरो डिग्री होना चाहिए।
Strawberry Farming strawberry packing
बाकी बिमारिओ और दूसरी ालमतो से बचाव के लिए देसी और अंग्रेजी तरीके दुसरे अध्याय में बताएँगे बीज लेने के लिए और पौध लेने के लिए कांटेक्ट करें 9814388969 www.modernkheti.com regular dekhte rahen
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स्ट्रॉबेरी
स्ट्रॉबेरी की किस्में
स्ट्रॉबेरी की खेती
स्ट्रॉबेरी की खेती कैसे करें
कुदरती तरीके से कीट और सुंडी को कैसे मारें ? ਕੁਦਰਤੀ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ ਕੀੜੇ ਤੇ ਸੁੰਡੀਆਂ ਨੂ ਓਰ੍ਗੇਨਿਕ ਫਸਲ ਤੋਂ ਕਿਵੇ ਮਾਰਿਆ ਜਾਵੇ ? organic way to control pest in organic farming
दोस्तो हमारे पास आर्गेनिक फार्मर्स का एक ग्रुप है जो पुरे भारत में हमारे सिद्धांतों के हिसाब से आर्गेनिक खेती करते हैं और ज़ेहर मुक्त खेती उत्पादन करते है। उसके प्रोडक्ट जैसे की गेहूं , चावल दाल सब्ज़िया लेने के लिए अपनी जानकारी हमें नीचे दिए फार्म मैं भर कर भेजें धन्यवाद
Dear friends we have a group of organic farmers .who produce poison less farming who meet our terms and condition with food test report .
नाइट्रोजन यह एक फसल को लगने वाला महत्वपूर्ण पोशणद्रव्य है | नाइट्रोजन प्राकृति में विविध रूपों में पाया जाता है | जैसे की वायु मंडल में (N2) वायु रूप में सबसे ज्यादा मात्रा में याने की लगभग ७८ % मौजूद है | लेकिन इस वायु रूप नाइट्रोजन का इस्तेमाल वनस्पति नहीं कर पाते | वनस्पति में , RNA DNA,अमीनो एसिड और प्रोटीन निर्माण में नाइट्रोजन अहम भूमिका निभाता है | इसलिये नाइट्रोजन की कमी से फसल की उपज में भारी घट हो सकती है | अगर आप नाइट्रोजन चक्र समज़ जायेंगे तो ,रासायनिक खादों का उपयोग कम करके प्राकृतिक तरीके से मिट्टी में नाइट्रोजन का प्रमाण बढ़ा सकते है |इस वायु मंडल में उपलब्ध नाइट्रोजन वायु को सजीव के लिए उपलब्ध कराना और फिर से उसे नाइट्रोजन वायु के रूप में परिवर्तित कराना ,इसे नाइट्रोजन चक्र कहेंगे |
यह चक्र कई जैविक और भौतिक प्रक्रियां पर निर्भर है |हम जानते है की कुछ प्रमाण में वायुमंडल में उपलब्ध नाइट्रोजन का बिजली से प्रक्रिया होकर ,बारिश के पानी के साथ पौधों को उपलब्ध होता है |
लेकिन ज्यादा से ज्यादातर नाइट्रोजन कुछ खास जीवाणुओं से (राइजोबियम ) पौधों को उपलब्ध होता है ,इसे नाइट्रोजन फिक्सेशन कहते है | यह जीवाणु नाइट्रोजन को अमोनियम आयन के रूप में पौधों को उपलब्ध कराते है | इसे वनस्पति अमीनो एसिड के रूप में उपयोग करते है | इस अवस्था में नाइट्रोजन जैविक रूप में वनस्पति और प्राणी जगत में पाया जाता है |
वनस्पति या प्राणी अपनी वेस्ट प्रोडक्ट में या जब वें अपनी जीवन यात्रा खतम करते है तो तब जैविक रूप में मौजूद नाइट्रोजन का कुछ बैक्टरिया और फंगस के माध्यम से पृथक्करण होकर अमोनिया में परिवर्तित होता है ,इसे अमोनिफिकेशन कहते है |
अमोनिफिकेशन से मिलने वाला अमोनिया और फिर से कुछ बैक्टरिया से (nitrobacter)परिवर्तित होकर नाइट्राइट और बादमें नाइट्रेट तैयार होता है ,इसे नाइत्रिफिकेषण कहते है |
इस पश्चात् कुछ जीवाणु से (psuedomonas) डीनाइत्रीफिकेशन होकर , नाइट्रोजन (N2) वायु तैयार होकर वातावरण में मिल जाता है और ईस तरह से नाइट्रोजन चक्र पूरा होता है |
इस से हम यह निष्क
र्ष निकाल सकते है की ,नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणु से बिज उपचार और अधिकतम जैविक खादों का इस्तेमाल ,नाइट्रोजन चक्र की तंदुरस्ती बरक़रार रखता है
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जीरो बजट खेती का अर्थ है की चाहे कोई भी फसल हो उसका उपज मोल ज़ीरो होना चाहिए। (कॉस्ट ऑफ़ प्रोडक्शन विल बी जीरो ) कुदरती खेती मैं इस्तेमाल होने वाले साधन बाजार से खरीद कर नहीं डाले जाने चाहिए। वो सरे साधन और तत्व पौधे की जड़ों के आस पास ही पड़े होते हैं। अलग से बन बनाया कुछ भी डालने की जरूरत नहीं है। हमारी धरती पूर्ण तरह से पालन हार है।
हमारी फसलें धरती से किनते प्रतिशत तत्त्व लेती हैं ?
हमारी फसल सर डेढ़ से दो प्रतिशत ही धरती से लेती हैं। बाकि अठानवे से साढ़े अठानवे प्रतिशत हवा और पानी से लेती हैं। असल मैं आपको फसल लेने के लिए अलग से कुछ डालने की जरूरत नहीं है। यही खेती का मूल विज्ञान है। हरे पत्ते दिन भर खाद का निर्माण करते हैं। हर एक हरा पता अपने आप ने एक खाद्य कारखाना है। जो की इन्ही चीजों से खुराक बनता है। वो हवा से कार्बन डॉइ ऑक्साइड और न्यट्रोजन लेता है। बरसात से इकठा हुआ पानी उसकी जड़ों तक पहुँच जाता है। सूरज की रौशनी से ऊर्जा (१२/५ किलो कैलोरीज / वर्ग फुट एरिया प्रति दिन ) ले कर खुराक का निर्माण करता है। किसी भी फसल या पेड़ का पता दिन की दस घंटे धुप दौरान प्रति वर्ग फुट एरिया के हिसाब से साढ़े चार ग्राम खुराक तैयार करता है। इस साढ़े चार ग्राम से डेढ़ ग्राम दाने को या ढाई ग्राम फल या पेड़ के किसी और हिस्से को मिल जाता है जहाँ योग्यता हो। खुराक बनने योग्य तत्व वो हवा या पनि से लेता है। जो की बिलकुल फ्री है। इस लिए न तो बादल का कोई बिल है और न हवा पनि का। सब मुफ्त मिलता है। जब पौधे ये तत्व लेते हैं तो किसी डॉक्टर या यूनिवर्सिटी की फरमाइश से नहीं लेते। अगर हम ये मान भी लेते हैं तो जंगलों मैं ये परिकिरिया कौन सी विश्विदियलय या डॉक्टर करते हैं ये बिलकुल कुदरती होता है।
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अब बात ये उठती है की अगर ये सब धरती मैं है तो डॉक्टर मिटी की जाँच किों करवाते हैं। हाँ वो ये जान ने के लिए की कौन से तत्व हैं। फिर डॉक्टर ये कहते हैं की आपकी मिटी मैं तत्व तो हैं लेकिन पौध इनको गरहन नहीं कर सकता इस लिए ऊपर से डालने पड़ेंगे। असल मैं ये बात वैसे ही है जैसे हमारे घर में खाना पड़ा हो लेकिन पक हुआ न हो और पकाने वाले भी घर पे न हों। और हम बाहर से पका हुआ खाना मगवा कर खाएं।
उसी तरह तत्व तो हमारी धरती में सभ हैं लेकिन उनको पकाने वाले जीव हमने मार दिए हैं रसायन या कीट नाशक या और केमिकल डाल कर। अगर हम इनकी व्रतों बंद करके देसी तरीके से चलते हैं तो हम जरूर उन खाना बनने वाली किरिया को चालु कर सकते हैं। इस लिए हमें जीव जन्तुओ को पुनर स्थापित करना होगा।
हम अनत कोटि जीवों को कैसे खेत में डाल कर खाद बनने के काम लगा सकते हैं ?
वो चमत्कारी साधन है हमारी देसी गाय का गोबर। इसमें करोड़ो सक्षम जीव होते हैं जो धरती मत को चाहिए हैं। ये धरती को ऐसे जाग लगाती है जैसे दूध को दही। जैसे पूरी हांडी का दूध सिर्फ एक चमच दही से ही दही बन जाता है वैसे ही गाए का गोबर काम करता है। एक गाए एक ग्राम के गोबर में तीन सो करोड़ से पांच सो करोड़ तक सक्षम जीव होते हैं।
एक एकर को कितना गोबर चाहिए ?
इस्पे खोज की गई थी जिस से सामने आया है की ,महाराष्ट्र की गोलउ ,लाल कंधारी ,खिलारी
, देवनी डांगी ,निमारी और पश्चिमी भारत की गिर ,थपरकर ,साहीवाल रडसिन्धी, और दक्षिणी भारत की अमृत महल और कृष्णा काठी , और उत्तर भारत की हरयाणा नामी गय खोज का हिंसा बानी थी।
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इनके ऊपर किये गए तजुरबे नीचे दिए गए हैं
पहला तजूर्बा:- देसी गए का गोबर और मल मटर सबसे उत्तम है। लेकिन बैल और भैंस का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन जरसी गाये का नहीं होना चाहिए। किओंकी वो गाये नहीं कोई और जीव है। गाओं में से कपिला गाय उत्तम है। जिसका रंग कल हो।
दूसरा तजुरबा :- गोबर जितना ताज़ा हो उतना अच्छा है और मुत्तर जितना पुराण हो उतना अच्छा है।
तीसरा तजुरबा :- एक गए तीस एकर तक की खेती के लिए जायज़ है। इसके होते हुए रसायन खाद इस्तेमाल करना मतलब फ्री में जेब कटवाना है। एक देसी गाये एक दिन मैं गियरह किलो गोबर देती है। और हमें एक महीने मैं दस किलो गोबर एक एकर में डालना चाहिए मतलब साल में एक क्वीन्टल बीस किलो एक एकर के लिए काफी है। और ट्राली भर के गोबर डालने की जरूरत नहीं है।
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गोबर को किस ढंग से खेत में डालना है ?
जीवों के मल मुतर से पेड़ों या फसलों के फल देने का गहरा सम्बन्ध है। आप ने देखा होगा के जिस पेड़ को मीठे फल लगते हैं उसके फल खा क्र जीव वाही मल मूत्र करते हैं जिस से पेड़ को खुराक मिलती है इसी सिद्धांत पे चलते। कुदरत मीठा फल देती है और बदले में जीव पौधे को खुराक देते हैं खोज कर्ताओं ने गए के गोबर मैं गुड डाला जिस से की सुखसम जेव जियादा बढे और जल्दी बढे।
अगर और भी अच्छे परिणाम लेने हो तो प्रोटीन वाली दाल का भी कुछ प्रतिशत डालना चाहिए। जिस से जीव जल्दी सक्रिय होते हैं।
और इन्ही परिणामों के चलते नीचे दी गई औषदि के रूप में तैयार किये जा सकते हैं।
जीव अमृत
गोबर खाद
गाढ़ा जीव अमृत
सूखा जीव अमृत
जीव अमृत छिड़काव
बीज अमृत
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पर कुदरती खेती या आर्गेनिक खेती कॉलम पढ़ते रहें और जानकारी हासिल करते रहें धन्यवाद और भी लेक्चर कुदरती खेती और जीरो बजट पर हम डालते रहेंगे