पानी में घुलनशील नीम तेल, , यह हानिकारक कीड़ों के लिए सब्जियां, फल, फूल पौधों, बालकनी गार्डन, छत उद्यान होम उद्यान, बगीचों आदि के लिए के लिए की कई प्रजातियों से पौधों की रक्षा के लिए आर्गेनिक खेती के लिए
2 bottles of Water Soluble Neem Oil, Broad Spectrum Results, It protects plants from many species of harmful insects and pests.Suitable for Vegetables, Fruits, Flower Plants ,for Balcony Gardens, Terrace Gardens, Home Gardens, Orchards etc,when this product is mixed with water it gives clear milky white emulsion, Eco Friendly, It does not harm beneficial insects and predators, Non toxic , easy application , perfect for Home Gardening, 2 bottles
150 ML X 2 = 300 ML consumer pack , Top Quality water soluble Neem oil
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किसान फसलें उगाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं लेकिन तमाम तरह के कीट , फसलों को चट कर जाते हैं। वैज्ञानिक विधि अपनाकर कीटनाशकों के बिना ही इनका नियंत्रण किया जा सकता है। इससे कीटनाशकों पर उनका खर्चघटेगा। खेत की मिट्टी से ज्यादा पैदावार पाने के लिए किसानों को कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। फसलें उगाने में उन्हें काफी पैसे भी खर्च करना पड़ता है। लेकिन मिटट्ी में पनपने वाले कीड़े-मकोड़े जैसे दीमक आदि फसलों को चट कर जाते हैं। इन कीटों से फसलों को सुरक्षित रखने के लिए भी कीटनाशकों पर किसानों को काफी खर्च करना पड़ता है। फसलें और कीट नियंत्रण के लिए वैज्ञनिक विधि अपनाकर किसान कीट नियंत्रण ज्यादा प्रभावी तरीके से कर सकते हैं।
कीटों का फसलों पर असर :
दीमक पोलीफेगस कीट होता है ,यह सभी फसलो को बर्बाद करता है | भारत में फसलों को करीबन 45 % से ज्यादा नुकसान दीमक से होता है। वैज्ञनिकों के अनुसार दीमक कई प्रकार की होती हैं। दीमक भूमि के अंदर अंकुरित पौधों को चट कर जाती हैं। कीट जमीन में सुरंग बनाकर पौधों की जड़ों को खाते हैं। प्रकोप अधिक होने पर ये तने को भी खाते हैं। इस कीट का वयस्क मोटा होता है, जो धूसर भूर रंग का होता है और इसकी लंबाई करीब भ्.भ्म् मिलीमीटर होती है। इस कीट की सूड़ियां मिटट्ी की बनी दरारों अथवा गिरी हुई पत्तियों के नीचे छिपी रहती हैं। रात के समय निकलकर पौधो की पत्तियों या मुलायम तनों को काटकर गिरा देती है। आलू के अलावा टमाटर, मिर्च, बैंगन, फूल गोभी, पत्ता गोभी, सरसों, राई, मूली,गेहू आदि फसलो को सबसे ज्यादा नुकसान होता है। इस कीट के नियंत्रण के लिए समेकित कीट प्रबंधन को अपनाना जरूरी है।
दीमक की रोकथाम :
दीमक से बचाव के लिए खेत में कभी भी कच्ची गोबर नहीं डालनी चाहिए। कच्ची गोबर दीमक का प्रिय भोजन होता है | इन कीटों के नियंत्रण के लिए
बीजों को बिवेरिया बेसियाना फफुद नासक से उपचारित किया जाना चाहिए। एक किलो बीजों को 20 ग्राम बिवेरिया बेसियाना फफुद नासक से उपचारित करके बोनी चाहिए
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2 किग्रा सुखी नीम की बीज को कूटकर बुआइ से पहले 1 एकड़ खेत में डालना चिहिए
नीम केक 30 किग्रा /एकड़ में बुआइ से पहले खेत में डालना चिहिए
1 किग्रा बिवेरिया बेसियाना फफुद नासक और 25 किग्रा गोबर की सड़ी खाद में मिलाकर बुआइ से पहले खेत में डालना चिहिए
1 किग्रा/एकड़ बिवेरिया बेसियाना फफुद नासक को आवश्यकतानुसार पानी में घोलकर मटके में भरकर ,निचले हिस्से में छिद्र करके सिचाई के समय देना चाहिए
दीमक नियंत्रण के देशी उपाय/ किसानो द्वारा प्रयोग के आधार पर /प्रयोग का
परिणाम :
मक्का के भुट्टे से दाना निकलने के बाद, जो गिण्डीयॉ बचती है, उन्हे एक मिट्टी के घड़े में इक्टठा करके घड़े को खेत में इस प्रकार गाढ़े कि घड़े का मुॅह जमीन से कुछ बाहर निकला हो। घड़े के ऊपर कपड़ा बांध दे तथा उसमें पानी भर दें। कुछ दिनाेंं में ही आप देखेगें कि घड़े में दीमक भर गई है। इसके उपरांत घड़े को बाहर निकालकर गरम कर लें ताकि दीमक समाप्त हो जावे। इस प्रकार के घड़े को खेत में 100-100 मीटर की दूरी पर गड़ाएॅ तथा करीब 5 बार गिण्डीयॉ बदलकर यह क्रिया दोहराएं। खेत में दीमक समाप्त हो जावेगी।
सुपारी के आकार की हींग एक कपड़े में लपेटकर तथा पत्थर में बांधकर खेत की ओर बहने वाली पानी की नाली में रख दें। उससे दीमक तथा उगरा रोग नष्ट हो जावेगा।
एक किग्रा निरमा सर्फ़ को 50 किग्रा बीज में मिलाकर बुआइ करने से दीमक से बचाव होता है
जला हुआ मोबिल तेल को सिचाई से समय खेत की ओर बहने वाली पानी की नाली से देने से दीमक से बचाव होता है
एक मिटटी के घड़े में 2 किग्रा कच्ची गोबर + १०० ग्राम गुड को 3 लीटर पानी में घोलकर ,जहा दीमक का समाश्या हो वहां पर इस प्रकार गाढ़े कि घड़े का मुॅह जमीन से कुछ बाहर निकला हो। घड़े के ऊपर कपड़ा बांध दे तथा उसमें पानी भर दें। कुछ दिनाेंं में ही आप देखेगें कि घड़े में दीमक भर गई है, इसके उपरांत घड़े को बाहर निकालकर गरम कर लें ताकि दीमक समाप्त हो जावे। इस प्रकार के घड़े को खेत में 100-100 मीटर की दूरी पर गड़ाएॅ तथा करीब 5 बार गिण्डीयॉ बदलकर यह क्रिया दोहराएं। खेत में दीमक समाप्त हो जावेगी।
जैविक पध्दति द्वारा जैविक कीट एवं व्याधि नियंत्रण के कृषकों के अनुभव :-
जैविक कीट एवं व्याधि नियंजक के नुस्खे विभिन्न कृषकों के अनुभव के आधार पर तैयार कर प्रयोग किये गये हैं, जो कि इस प्रकार हैं-
गौ-मूत्
गौमूत्र, कांच की शीशी में भरकर धूप में रख सकते हैं। जितना पुराना गौमूत्र होगा उतना अधिक असरकारी होगा । 12-15 मि.मी. गौमूत्र प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रेयर पंप से फसलों में बुआई के 15 दिन बाद, प्रत्येक 10 दिवस में छिड़काव करने से फसलों में रोग एवं कीड़ों में प्रतिरोधी क्षमता विकसित होती है जिससे प्रकोप की संभावना कम रहती है।
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कीट रोग नियंत्रण के लिए कम ज़हरीले दवाओं का प्रयोग करें
बहुत ज़्यादा ज़हरीले कीट नाशकों का उपयोग न करें
अधिक ज़हरीले कीटनाशक उपयोग करने से मानव और पशुओं और ज़मीन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।
कीटनाशकों को खरीदने से पहले उनपे दिए निर्देश जरूर पढ़ें।
कीटनाशकों के डिब्बों के ऊपर अलग रंगों से तिकोने चिन्ह से प्रदर्शित किये गए होते हैं।
किसान भाईओं को ग्रीन या हरे रंग के निर्देश वाले कीटनाशक ही सब्जिओं और फसलों पे करने चाहिए।
लाल रंग वाले चिन्ह वाली दवाई अति अधिक खतरनाक होती है।
पीले रंग वाले चिन्ह वाली दवाई अधिक खतरनाक होती है।
लेकिन लाल रंग वाली दवाई से थोड़ी काम ज़हरीली होती है।
हरे रंग वाले चिन्ह वाली दवाई जिसपे डेंजर का निशान हो वो खतरनाक तो होती है।
लेकिन पीले रंग वाली से भी कम ज़हरीली होती है।
हरे रंग वाले चिन्ह वाली दवाई जिसपे सवधनिा का निशान हो वो
डेंजर वाली से कम खतरनाल होती हैं। और ये पर्यावरण के हिसाब से भी ठीक होती हैं।
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जीरो बजट खेती का अर्थ है की चाहे कोई भी फसल हो उसका उपज मोल ज़ीरो होना चाहिए। (कॉस्ट ऑफ़ प्रोडक्शन विल बी जीरो ) कुदरती खेती मैं इस्तेमाल होने वाले साधन बाजार से खरीद कर नहीं डाले जाने चाहिए। वो सरे साधन और तत्व पौधे की जड़ों के आस पास ही पड़े होते हैं। अलग से बन बनाया कुछ भी डालने की जरूरत नहीं है। हमारी धरती पूर्ण तरह से पालन हार है।
हमारी फसलें धरती से किनते प्रतिशत तत्त्व लेती हैं ?
हमारी फसल सर डेढ़ से दो प्रतिशत ही धरती से लेती हैं। बाकि अठानवे से साढ़े अठानवे प्रतिशत हवा और पानी से लेती हैं। असल मैं आपको फसल लेने के लिए अलग से कुछ डालने की जरूरत नहीं है। यही खेती का मूल विज्ञान है। हरे पत्ते दिन भर खाद का निर्माण करते हैं। हर एक हरा पता अपने आप ने एक खाद्य कारखाना है। जो की इन्ही चीजों से खुराक बनता है। वो हवा से कार्बन डॉइ ऑक्साइड और न्यट्रोजन लेता है। बरसात से इकठा हुआ पानी उसकी जड़ों तक पहुँच जाता है। सूरज की रौशनी से ऊर्जा (१२/५ किलो कैलोरीज / वर्ग फुट एरिया प्रति दिन ) ले कर खुराक का निर्माण करता है। किसी भी फसल या पेड़ का पता दिन की दस घंटे धुप दौरान प्रति वर्ग फुट एरिया के हिसाब से साढ़े चार ग्राम खुराक तैयार करता है। इस साढ़े चार ग्राम से डेढ़ ग्राम दाने को या ढाई ग्राम फल या पेड़ के किसी और हिस्से को मिल जाता है जहाँ योग्यता हो। खुराक बनने योग्य तत्व वो हवा या पनि से लेता है। जो की बिलकुल फ्री है। इस लिए न तो बादल का कोई बिल है और न हवा पनि का। सब मुफ्त मिलता है। जब पौधे ये तत्व लेते हैं तो किसी डॉक्टर या यूनिवर्सिटी की फरमाइश से नहीं लेते। अगर हम ये मान भी लेते हैं तो जंगलों मैं ये परिकिरिया कौन सी विश्विदियलय या डॉक्टर करते हैं ये बिलकुल कुदरती होता है।
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अब बात ये उठती है की अगर ये सब धरती मैं है तो डॉक्टर मिटी की जाँच किों करवाते हैं। हाँ वो ये जान ने के लिए की कौन से तत्व हैं। फिर डॉक्टर ये कहते हैं की आपकी मिटी मैं तत्व तो हैं लेकिन पौध इनको गरहन नहीं कर सकता इस लिए ऊपर से डालने पड़ेंगे। असल मैं ये बात वैसे ही है जैसे हमारे घर में खाना पड़ा हो लेकिन पक हुआ न हो और पकाने वाले भी घर पे न हों। और हम बाहर से पका हुआ खाना मगवा कर खाएं।
उसी तरह तत्व तो हमारी धरती में सभ हैं लेकिन उनको पकाने वाले जीव हमने मार दिए हैं रसायन या कीट नाशक या और केमिकल डाल कर। अगर हम इनकी व्रतों बंद करके देसी तरीके से चलते हैं तो हम जरूर उन खाना बनने वाली किरिया को चालु कर सकते हैं। इस लिए हमें जीव जन्तुओ को पुनर स्थापित करना होगा।
हम अनत कोटि जीवों को कैसे खेत में डाल कर खाद बनने के काम लगा सकते हैं ?
वो चमत्कारी साधन है हमारी देसी गाय का गोबर। इसमें करोड़ो सक्षम जीव होते हैं जो धरती मत को चाहिए हैं। ये धरती को ऐसे जाग लगाती है जैसे दूध को दही। जैसे पूरी हांडी का दूध सिर्फ एक चमच दही से ही दही बन जाता है वैसे ही गाए का गोबर काम करता है। एक गाए एक ग्राम के गोबर में तीन सो करोड़ से पांच सो करोड़ तक सक्षम जीव होते हैं।
एक एकर को कितना गोबर चाहिए ?
इस्पे खोज की गई थी जिस से सामने आया है की ,महाराष्ट्र की गोलउ ,लाल कंधारी ,खिलारी
, देवनी डांगी ,निमारी और पश्चिमी भारत की गिर ,थपरकर ,साहीवाल रडसिन्धी, और दक्षिणी भारत की अमृत महल और कृष्णा काठी , और उत्तर भारत की हरयाणा नामी गय खोज का हिंसा बानी थी।
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इनके ऊपर किये गए तजुरबे नीचे दिए गए हैं
पहला तजूर्बा:- देसी गए का गोबर और मल मटर सबसे उत्तम है। लेकिन बैल और भैंस का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन जरसी गाये का नहीं होना चाहिए। किओंकी वो गाये नहीं कोई और जीव है। गाओं में से कपिला गाय उत्तम है। जिसका रंग कल हो।
दूसरा तजुरबा :- गोबर जितना ताज़ा हो उतना अच्छा है और मुत्तर जितना पुराण हो उतना अच्छा है।
तीसरा तजुरबा :- एक गए तीस एकर तक की खेती के लिए जायज़ है। इसके होते हुए रसायन खाद इस्तेमाल करना मतलब फ्री में जेब कटवाना है। एक देसी गाये एक दिन मैं गियरह किलो गोबर देती है। और हमें एक महीने मैं दस किलो गोबर एक एकर में डालना चाहिए मतलब साल में एक क्वीन्टल बीस किलो एक एकर के लिए काफी है। और ट्राली भर के गोबर डालने की जरूरत नहीं है।
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गोबर को किस ढंग से खेत में डालना है ?
जीवों के मल मुतर से पेड़ों या फसलों के फल देने का गहरा सम्बन्ध है। आप ने देखा होगा के जिस पेड़ को मीठे फल लगते हैं उसके फल खा क्र जीव वाही मल मूत्र करते हैं जिस से पेड़ को खुराक मिलती है इसी सिद्धांत पे चलते। कुदरत मीठा फल देती है और बदले में जीव पौधे को खुराक देते हैं खोज कर्ताओं ने गए के गोबर मैं गुड डाला जिस से की सुखसम जेव जियादा बढे और जल्दी बढे।
अगर और भी अच्छे परिणाम लेने हो तो प्रोटीन वाली दाल का भी कुछ प्रतिशत डालना चाहिए। जिस से जीव जल्दी सक्रिय होते हैं।
और इन्ही परिणामों के चलते नीचे दी गई औषदि के रूप में तैयार किये जा सकते हैं।
जीव अमृत
गोबर खाद
गाढ़ा जीव अमृत
सूखा जीव अमृत
जीव अमृत छिड़काव
बीज अमृत
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पर कुदरती खेती या आर्गेनिक खेती कॉलम पढ़ते रहें और जानकारी हासिल करते रहें धन्यवाद और भी लेक्चर कुदरती खेती और जीरो बजट पर हम डालते रहेंगे
बिजाई करने से पहले बीज तो अच्छे ढंग से ट्रीट करना बहुत जरूरी है। जिस से पौधे की सेहत ठीक रहे। इसके लिए बीज अमृत बहुत ही उत्तम तरीका है। जीव अमृत की तरह इसमें भी वही चीजें डालती है जो बिना किसे कीमत के मिलती है। ये कुदरती खेती और ज़ीरो बजट खेती का भी हिंसा है।
इसके लिए नीचे दी गई सामग्री तैयार करें।
1 देसी गाय का गोबर 5 Kilo (अगर देसी गाये का गोबर न मिले तो देसी बैल और भैंस का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। )
2 देसी गौ मुतर 5 litter (अगर न मिले तो मानवी मुतर भी इस्तेमाल कर सकते हैं। )
3 चूना या कली 250 ग्राम।
4 पनि बीस लिटिर।
इन चीजों को घोल कर चौबीस घंटे के लिए रखें। दिन मैं दो बार लकड़ी से हिलाएँ। इसके बाद इसको बीज के ऊपर दाल के बीज को सोधें इसके बाद बीज को छाव मैं सुखा लें। बीज अमृ से सोधे हुए बीज जल्दी और जियादा मात्र मैं उगते हैं। भूमि मैं लगने वाली बीमारियां कम होती हैं। पौधे अच्छी तरह से फलते फूलते हैं। केले और गन्ने की बिजाई में भिगोने के तुरंत बाद लगना चाहिए। और अगर धान ,टमाटर ,बेंगन या किसी भी प्रकार की पौध लगनी हो तो उसकी जड़ें बीज अमृत में डुबोये। उसके बाद पौध खेत मैं लगाएं।
How to make Beej Amrit Organic Seed Treatment
Dear friends before sowing the seed we need to treatment the seed with organic way.with this way the health of plant will be best . Beej Amrit is best way to treat seed.Beej Amrit is just like jeev amrit ,a farmer can make with zero budget .this is the part of natural farming and zero budget farming also.
We need following for Beej Amrit
1 Desi Cow Dung 5 Kilo (if not available farmer may use buffalo dung also )
2 Desi Cow urine 5 litter (you may use human urine if desi cow urine is not availabe)
3 white wash 250 grams
4 water 20 litter
You can mix it for 24 hours and move stick twice a day . after that soak the seed with it and after that you need to sow the seed . plants treated with beej amrit grow properly and fast.and prevent soil related plant problems.banana plant and sugarcane can be sow instantly and paddy brinjal,nursery related plant’s roots canbe treated with beej amrit .after that farmer can plant it in fields.
ट्राइकोडर्मा के उत्पादन की ग्रामीण घरेलू विधि में कण्डों (गोबर के उपलों) का प्रयोग करते हैं। खेत में छायादार स्थान पर उपलों को कूट कूट कर बारिक कर देते हैं। इसमें 28 किलो ग्राम या लगभग 85 सूखे कण्डे रहते हैं। इनमें पानी मिला कर हाथों से भली भांति मिलाया जाता है। जिससे कि कण्डे का ढेर गाढ़ा भूरा दिखाई पड़ने लगे। अब उच्च कोटी का ट्राइकोडर्मा शुद्ध कल्चर 60 ग्राम इस ढेर में मिला देते हैं। इस ढेर को पुराने जूट के बोरे से अच्छी तरह ढक देते है और फिर बोरे को ऊपर से पानी से भिगो देते हैं। समय समय पर पानी का छिड़काब बोरे के ऊपर करने से उचित नमी बनी रहती है। 12-16 दिनों के बाद ढ़ेर को फावडे से नीचे तक अच्छी तरह से मिलाते हैं। और पुनः बोरे से ढ़क देते है। फिर पानी का छिड़काव समय समय पर करते रहते हैं। लगभग 18–20 दिनों के बाद हरे रंग की फफूंद ढ़ेर पर दिखाई देने लगती है। इस प्राकर लगभग 28 से 30 दिनों में ढे़र पूर्णतया हरा दिखाई देने लगता है। अब इस ढे़र का उपयोग मृदा उपचार के लिए करें । इस प्रकार अपने घर पर सरल, सस्ते व उच्च गुणवत्ता युक्त ट्राइकोडर्मा का उत्पादन कर सकते है। नया ढे़र पुनः तैयार करने के लिए पहले से तैयार ट्राइकोडर्मा का कुछ भाग बचा कर सुरक्षित रख सकते हैं और इस प्रकार इसका प्रयोग नये ढे़र के लिए मदर कल्चर के रूप में कर सकते हैं। जिससे बार बार हमें मदर कल्चर बाहर से नही लेना पडेगा।
उत्पादन हेतु ध्यान में रखने योग्य बातें
उत्पादन हेतु छायादार स्थान का होना ज़रूरी है।जिससे कि सूर्य की किरणें ढे़र पर सीधी नहीं पड़ें। ढे़र में उचित नमी बनाए रखें।25 – 30 डिग्री सेन्टीग्रड़ तापमान का होना ज़रूरी है।समय-समय पर ढे़र को पलटते रहना चाहिए।
एक सरल सूत्र बताता हूँ जिसको भारत में पिछले 12-15 वषों में हजारो किसानों ने अपनाया है और बहुत लाभ उनको हुआ है। एक एकड़ खेत के लिए किसी भी फसल के लिए खाद बानाने कि विधि ।
1) एक बार में 15 किलो गोबर लगता है और ये गोबर किसी भी देसी गौमाता या देसी बैल का ही होना चाहियें। विदेशी या जर्सी गायें का नहीं होना चाहियें ।
2) इसमें मिलायें 15 लीटर मूत्र, उसी जानवर का जिसका गोबर लिया है । दोनों मिला लीजिए प्लास्टिक के एक ड्रम में रख दें ।
3) फिर इसमें एक किलो गुड़ डाल दीजिए और गुड़ ऐसा डाल दीजिए जो गुड़ हम नहीं खा सकते, जानवरी नहीं खा सकते, जो बेकार हो गया हो, वो गुड़ खाद बनाने में सबसे अच्छा काम में आता है। तो एक किलो गुड 15 किलो गोमूत्र, 15 किलो गोबर इसमें डालिए ।
4) फिर एक किलो किसी भी दाल का आटा (बेसन) ।
5) अंत में एक किलो मिट्टी किसी भी पीपल या बरगद के पेड़ के नीचे से उठाकर इसमें डालना ।
ये पाँच वस्तुओं को एक प्लास्टिक के ड्रम में मिला देना, डंडे से या हाथ से मिलाने के बाद इसको 15 दिनों तक छावं मे रखना । पन्द्रह दिनों तक इसका सुबह शाम डंडे से घुमाते रहना। पन्द्रह दिनों में ये खाद बनकर तैयार हो जाएगा । फिर इस खाद में लगभग 150 से 200 लीटर पानी मिलाना । पानी मिलाकर अब जो घोल तैयार होगा, ये एक एकड़ के लिए पर्याप्त खाद है। अगर दो एकड़ के लिए पर्याप्त खाद है तो सभी मात्राओं को दो गुणा कर दीजिए।
अब इसको खेत में कैसे डालना है ?
अगर खेत खाली है तो इसको सीधे स्प्रै कर सकते हैं मिट्टी को भिगाने के हिसाब से। डब्बे में भर-भर के छिड़क सकते हैं या स्प्रै पम्प में भरकर छिड़क सकते हैं, स्प्रै पम्प का नोजर निकाल देंगे तो ये छिड़कना आसान होगा ।
फसल अगर खेत में खड़ी हुई है तो फसल में जब पानी लगाएंगे तो पानी के साथ इसको मिला देना है।
खेत मे यह खाद कब-कब डालनी है ?
इसका आप हर 21 दिन में दोबारा से डाल सकते हैं आज आपने डाला तो दोबारा 21 दिन बाद डाल सकते हैं, फिर 21 दिन बाद डाल सकते हैं। मतलब इसका है कि अगर फसल तीन महीने की है तो कम से कम चार-पांच बार डाल दीजिए। चार महीने की है तो पांच से छह बार डाल दीजिए। 6 महीने की फसल है तो सात-आठ बार डाल दीजिए, साल की फसल है तो उसमें आप इसको 14-15 बार डाल दीजिए। हर 21 दिन में डालते जानला है। इस खाद से आप किसी भी फसल को भरपूर उत्पादन ले सकते हैं – गेहूँ, धन, चना, गन्ना, मूंगफली, सब्जी सब तरह की फसलों में ये डालकर देख गया है। इसके बहुत अच्छे और बहुत अदभुत परिणाम हैं।
सबसे अच्छा परिणाम क्या आता है इसका? आपकी जिंदगी का खाद का जो खर्चा है 60 प्रतिशत, वो एक झटके में खत्म हो गया। फिर दूसरा खर्चा क्या खत्म होता हैं जब आप ये गोबर-गोमूत्र का खाद डालेंगे तो खेत में विष कम हो जाएगा, तो जन्तुनाशक डालना और कम हो जाएगा, कीटनाशक डालना ओर कम हो जाएगा। यूरिया, डी.ए.पी. का असर जैसे-जैसे मिट्टी से कम हो जाएगा, बाहर से आने वाले कीट और जंतु भी आपके खेत में कम होते जाएंगें, तो जंतुनाशक और कीटनाशक डालने का खर्च भी कम होता जाएगा, और लगातार तीन-चार साल ये खाद बनाकर आपने डाल दिया तो लगभग तय मानिए आपके खेत में कोर्इ भी जहरीला कीट और जंतु आएगा नहीं, तो उसको मारने के लिए किसी भी दवा की जरूरत नहीं पड़ेगी तो 20 प्रतिशत जो कीटनाशक का खर्चा था वो भी बच जाएगा। खेती का 80 प्रतिशत खर्चा आपका बच जाएगा। दूसरी बात इस खाद के बारे में ये कि ये सभी फसलों के लिए है। जानवरों का गोबर और गोमूत्र गाँव में आसानी से मिल जाता है। गोबर इकटठा करना तो बहुत आसान है। जानवरों का मूत्र इकटठा करना भी आसान है।
देसी गौमाता या देसी बैल का मूत्र कैसे इकटठा करें ?
सभी देसी गौमाता या देसी बैल का मूत्र देते हैं। आप ऐसा करिए कि उनको बांधने का जो स्थान है वो थोड़ा पक्का बना दीजिए, सीमेंट या पत्थर लगा दीजिए और उस स्थान को थोड़ा ढाल दे दीजिए और फिर उसमें एक नाली बना दीजिए और बीच में एक खडडा डाल दीजिए। तो जानवर जो भी मूत्र करेंगे वो सब नाली से आकर खडडे में इकटठा हो जाएगा। अब देसी गौमाता या देसी बैल के मूत्र की एक विशेषता है कि इसकी कोर्इ एक्सपायरी डेट नहीं है। 3 महीने, एक साल, दो साल, पांच साल, दस साल कितने भी दिन पड़ा रहे खडडे में, वो खराब बिल्कुल नहीं होता। इसलिए बिल्कुल निशचिंत तरीके से आप इसका इस्तेमाल करें, मन में हिचक मत लायें कि ये पुराना है या नया। हमने तो ये पाया है कि जितना देसी गौमाता या देसी बैल का मूत्र पुराना होता जाता है उसकी गुन्वत्ता उतनी ही अच्छी होती जाती है। ये जितने भी मल्टीनेशनल कम्पनियों के जंतुनाशक हैं उन सबकी एक्सपायरी डेट है और उसके बाद भी कीड़े मरते नहीं है और किसान उसको कर्इ बार चख कर देखते हैं कि कहीं नकली तो नहीं है, तो किसान मर जाते हैं, कीड़े नहीं मरते हैं तो मल्टीनेशनल कम्पनियों के कीटनाशक लेने से अच्छा है देसी गौमाता या देसी बैल के मूत्र का उपयोग करना। तो इसको खाद में इस्तेमाल करिए, ये एक तरीका है। लगातार तीन-साल इस्तेमाल करने पर आपके खेत की मिट्टी को एकदम पवित्र और शुदध बना देगा, मिट्टी में एक कण भी जहर का नहीं बचेगा। और उत्पादन भी पहले से अधिक होगा । फसल का उत्पादन पहले साल कुछ कम होगा परन्तु खाद का खर्चा एक हि जाटके मे कम हो जायेंगा और उत्पादन भी हर साल बडता जायेगा । Whatsapp 9814105671
ताजा वर्मीकम्पोस्ट व केंचुए के शरीर को धोकर जो पदार्थ तैयार होता है उसे वर्मीवाश कहते हैं। यह भिन्न-भिन्न स्थानों पर विभिन्न संस्थाओं/व्यक्तियों द्वारा अलग-अलग विधियां अपनायी जाती हैं, मगर सबका मूल सिद्धान्त लगभग एक ही है। विभिन्न विधियों से तैयार वर्मीवाश में तत्वों की मात्रा व वर्मीवाश की सांद्रता में अन्तर हो सकता है।
बनाने की प्रक्रिया:-
वर्मीवाश इकाई बड़े बैरल/ड्रम, बड़ी बाल्टी या मिट्टी के घड़े का प्रयोग करके स्थापित की जा सकती है। प्लास्टिक, लोहे या सीमेन्ट के बैरल प्रयोग किये जा सकते हैं जिसका एक सिरा बन्द हो और एक सिरा खुला हो। सीमेंट का बड़ा पाईप भी प्रयोग किया जा सकता है। इस पाईप को एक ऊँचे आधार पर खड़ा रखकर नीचे की तरफ से बंद करें। नीचे की तरफ आधार के पास साईड में छेद (1 इंच चैड़ा) करें । इस छेद में T पाईप डालकर वाशर की मदद से सील करें। अंदर की ओर आधा इंच पाईप रखें तथा बाहर इतना कि नीचे बर्तन आसानी से रखा जा सके। बाहर T पाईप के छेद में नल फिट करें तथा दूसरे छेद में नट लगायें जोकि पाईप की समय-समय पर सफाई के काम आएगा। यह नल सुविधानुसार बैरल की पेंदी में भी लगाया जा सकता है।
इस्माइल (1997) द्वारा प्रयुक्त वर्मीवाश इकाई की कार्यप्रणाली इस प्रकार है। नल को खुला छोड़ कर बैरल में 2-4 इंच मोटे ईंट के टुकड़े या रोड़ी की 10-12 इंच मोटी परत बिछायें। इस पर पानी डालें जोकि नीचे से निकल जाए। इसके ऊपर मोटे रेत की 8-12 इंच परत बिछायें। फिर पानी डालें तथा नीचे नल से निकालें। इसके ऊपर 1-1.5 फुट दोमट मिट्टी की परत बिछायें। इसे गीला करें तथा 50-50 एपिजेइक व एनिजेइक केंचुए डालें। अगर सिर्फ एपिजेइक केंचुओं का प्रयोग करना हो तो मिट्टी की आवश्यकता नहीं है। केवल 2-4 इंच मिट्टी की परत डाल सकते हैं। इसके ऊपर गोबर की परत डाल दें। धीरे-धीरे पानी डालें तथा अतिरिक्त पानी निकल जाने के बाद नल बन्द कर दें। 20-25 मिनट नल को खुला रखते हुए रोजाना इकाई को नम करें। इस दौरान केंचुए वर्मीकम्पोस्ट बनाना शुरू कर देंगे।
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लगभग 16 दिन बाद, जब इकाई तैयार हो जाए, नल को बंद करके पांच लीटर क्षमता का एक बर्तन, जिसमें नीचे बारीक सुराख हों, इकाई के ऊपर लटका दें ताकि बूंद- बूंद पानी नीचे गिरे। यह पानी धीरे-धीरे कम्पोस्ट के माध्यम से गुजरता है और ताजा वर्मीकम्पोस्ट से तत्व लेकर अपने साथ घोल लेता है। साथ ही केंचुओं के शरीर को धोकर भी पानी गुजरता है। नल को अगले दिन वर्मीवाश एकत्रित करने के लिए खोल लिया जाए। इसके बाद नल को बंद कर दिया जाए तथा ऊपर वाले बर्तन में पानी भर दिया जाए ताकि उसी प्रकार वर्मीवाश एकत्रित करने की प्रक्रिया चलती रहे। इकाई को ऊपर से बोरी वगैरह से ढककर रखना चाहिए।
इकाई की ऊपरी सतह पर एकत्रित वर्मीकम्पोस्ट को समय-समय पर बाहर निकाला जा सकता है तथा गोबर व अवशेष डाले जा सकते हैं। या जब तक पूरा बैरल भर नजाए इसी प्रकार ऊपर फसल अवशेष डालते रहें तथा उसके बाद कम्पोस्ट को निकालकर दोबारा से सामग्री भरें। वर्मीवाश को इसी स्वरूप में स्टोर किया जा सकता है या धूप में सांद्रीकरण करके स्टोर कर सकते हैं। प्रयोग के समय इसमें पानी मिलाया जा सकता है। जो प्रयोगकर्ता की जरूरतों के अनुसार हो सकता है।
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तैयार वर्मीवाश
इकरीसेट, हैदराबाद में डाॅ. ओ.पी. रूपेला द्वारा अपनायी जा रही वर्मीवाश विधि उपरोक्त विधि का ही एक प्रारूप है। इसमें फिल्टर के रूप में एक बदलाव किया गया है। एक गोलाकार चोड़ा सीमेंट का पाईप एक प्लेटफार्म पर रखकर सीमेंट से जोड़ें। इसके ऊपर एक और सीमेंट का पाईप रखें। दोनों के बीच एक मोटी लोहे की जाली रखें तथा सीमेंट से जोड़ें। नीचे वाले पाईप के साईड में नीचे एक नल लगायें। लोहे की जाली के ऊपर प्लास्टिक की जाली रूपी फिल्टर बिछायें जिसके किनारे बैरल से बाहर निकले हों। फिल्टर के ऊपर गोबर डालें व केंचुए (ईसीनिया फीटिडा) डाल दें। इसके ऊपर फसल अवशेष/पत्तियों आदि की 3-4 इंच मोटी परत बिछायें। यह अवशेष उसी रूप में या 2% गोबर की स्लरी से भिगोकर डाल सकते हैं। प्रति सप्ताह इसी प्रकार अवशेष की परत बिछाते रहें। समय-समय पर पानी छिड़कते रहें। उचित तापमान बनाकर रखें। ऊपर से पाईप को एक पोटली, जिसमें पत्ते/पराली वगैरह भरे हों, से ढ़क देना चाहिए ताकि नमी बरकरार रहे तथा अंधेरा भी रहे।
लगभग 1 माह बाद जब अच्छी वर्मीकम्पोस्ट बनने लग जाए तो वर्मीवाश लेना शुरू कर सकते हैं। ऊपर फव्वारे के रूप में धीरे-धीरे पानी डालें जोकि इकाई से गुजरता हुआ नीचे निकलेगा। चूंकि इकाई का निचला आधा हिस्सा खाली है अतः फिल्टर के माध्यम से पानी नीचे चला जाएगा। दिन में लगभग 10 लीटर पानी यूनिट से बाहर निकालें। इस वर्मीवाश की सांद्रता बढ़ाने के लिए इसे दोबारा से इकाई के माध्यम से गुजारें। इस प्रकार 4-5 चक्रों के बाद सुनहरे रंग का वर्मीवाश तैयार हो जाता है
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जीरो बजट का अर्थ है। चाहे कोई भी अन्य फसल हो या बागवानी की फसल हो। उसकी लागत का मूल्य जीरो होगा। मुख्य फसल का लागत मूल्य आंतरवर्तीय फ़सलों के या मिश्र फ़सलों के उत्पादन से निकाल लेना और मुख्य फसल बोनस रूप में लेना या आध्यात्मिक कृषि का जीरो बजट है। फ़सलों को बढ़ने के लिए और उपज लेने के लिए जिन-जिन संसाधनों की आवश्यकता होती है। वे सभी घर में ही उपलब्ध करना, किसी भी हालत में मंडी से या बाजार से खरीदकर नहीं लाना। यही जीरो बजट खेती है। हमारा नारा है। गांव का पैसा गांव में, गांव का पैसा शहरों में नहीं। बल्कि शहर का पैसा गांव में लाना ही गांव का जीरो बजट है।
फ़सलों को बढ़ने के लिए जो संसाधन चाहिए वह उनके जड़ों के पास भूमि में और पत्तों के पास वातावरण में ही पर्याप्त मात्रा में मौजूद है। ऊपर से कुछ भी देने की जरुरत नहीं। क्योंकि हमारी भूमि अन्नपूर्णा है। हमारी फसलें भूमि से कितने तत्व लेती है। केवल 1.5 से 2.0 प्रतिशत लेती है। बाकी 98 से 98.5% हवा सूरज की रोशनी और पानी से लेती है।
उद्देश्य :-
खेती की लागत कम करके अधिक लाभ लेना।
ज़मीन/मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाना।
रासायनिक खाद/कीटनाशकों के प्रयोग में कमी लाना।
कम पानी/सिंचाई अधिक उत्पादन लेना।
किसानों की बाजार निर्भरता में कमी लाना।
जीरो बजट/प्राकृतिक खेती के मुख्य घटक –
आच्छादन 2. बाफसा 3. बीजामृत 4. जीवामृत
1. आच्छादान
(अ) मृदाच्छादन : हम जब दो बैलों से खींचने वाले हल से या कुल्टी (जोत) से भूमि की काश्तकारी या जोताई करते हैं, तब भूमि पर मिट्टी का आच्छादन ही डलते हैं। जिस से भूमि की अंतर्गत नमी और उष्णता वातावरण में उड़कर नहीं जाती, बची रहती है।
(ब) काष्टाच्छादन : जब हम हमारी फ़सलों की कटाई के बाद दाने छोड़कर फ़सलों के जो अवशेष बचते हैं, वह अगर भूमि पर आच्छादन स्वरूप डालते हैं, तो अनंत कोटी जीवजंतु और केंचवे भूमि के अंदर बाहर लगातार चक्कर लगाकर चौबीस घंटे भूमि को बलवान, उर्वरा एवं समृद्ध बनाने का काम करते हैं और हमारी फ़सलों को बढ़ाते हैं।
(स) सजीव आच्छादन : हम कपास, अरंडी, अरहर, मिर्ची, गन्ना, अंगूर, अमरुद, लिची, इमली, अनार, केला, नारियल, सुपारी, चीकू, आम, काजू आदि फ़सलों में जो सहजीवी आतर फसलें या मिश्रित फसलें लेते हैं, उन्हें ही सजीव आच्छादान कहते हैं।
2. वाफसा :-
वाफसा माने भूमि में हर दो मिट्टी के कणों के बीच जो खाली जगह होती है, उन में पानी का अस्तित्व बिल्कुल नहीं होना है, तो उन में हवा और वाष्प कणों का सम मात्रा में मिश्रण निर्माण होना। वास्तव में भूमि में पानी नहीं, वाफसा चाहिए। याने हवा 50% और वाष्प 50% इन दोनों का समिश्रण चाहिए। क्योंकि कोई भी पौधा या पेड़ अपने जड़ों से भूमि में से जल नहीं लेता, बल्कि,वाष्प के कण और प्राणवायु के याने हवा के कण लेता है। भूमि में केवल इतना जल देना है, जिसके रूपांतर स्वरूप भूमि अंतर्गत उष्णता से उस जल के वाष्प की निर्मिती हो और यह तभी होता है, जब आप पौधों को या फल के पेड़ों को उनके दोपहर की छांव के बाहर पानी देते हो। कोई भी पेड़ या पौधे की खाद्य पानी लेने वाली जड़े छांव के बाहरी सरहद पर होती है। तो पानी और पानी के साथ जीवामृत पेड़ की दोपहर को बारह बजे जो छांव पड़ती है, उस छांव के आखिरी सीमा के बाहर 1-1.5 फिट अंतर पर नाली निकालकर उस नाली में से पानी देना चाहिए।
3. बीजामृत (बीज शोधन) 100 कि.ग्रा. बीज के लिए :-
सामग्री
1. 5 किग्रा. गाय का गोबर
2. 5 लीटर गाय का गौमूत्र
3. 20 लीटर पानी
4. 50 ग्राम चूना
5. 50 ग्राम मेड़ की मिट्टी
बनाने की विधि : इस सभी सामग्री को चौबीस घंटे एक साथ पानी में डालकर रखें। दिन में दो बार लकड़ी से घोलें। बाद में बीज पर बनाए हुए बीजामृत का छिड़काव करें। बीज को मिलाकर छाया में सुखाएं और बाद में बीज बोएं। बीज शोधन से बीज जल्दी और ज्यादा मात्रा में उगकर आते हैं। जड़े गति से बढ़ती हैं और भूमि से पेड़ों पर जो बीमारियों का प्रादुर्भाव होता है वह नहीं होता है।
अवधि प्रयोग : बुवाई के 24 घंटे पहले बीजशोधन करना चाहिए।
4. जीवामृत :-
(अ) घन जीवामृत (एक एकड़ खेत के लिए)
सामग्री :-
1. 100 किलोग्राम गाय का गोबर
2. 1 किलोग्राम गुड/फलों का गुदा की चटनी
3. 2 किलोग्राम बेसन (चना, उड़द, अरहर, मूंग)
4. 50 ग्राम मेड़ या जंगल की मिट्टी
5. 1 लीटर गौमूत्र
बनाने की विधि :-
सर्वप्रथम 100 किलोग्राम गाय के गोबर को किसी पक्के फर्श व पोलीथीन पर फैलाएं फिर इसके बाद 1 किलोग्राम गुड या फलों गुदों की चटनी व 1 किलोग्राम बेसन को डाले इसके बाद 50 मेड़ या जंगल की मिट्टी डालकर तथा 1 लीटर गौमूत्र सभी सामग्री को फॉवड़ा से मिलाएं फिर 48 घंटे छायादार स्थान पर एकत्र कर या थापीया बनाकर जूट के बोरे से ढक दें। 48 घंटे बाद उसको छाए पर सुखाकर चूर्ण बनाकर भंडारण करें।
अवधि प्रयोग :-
इस घन जीवामृत का प्रयोग छः माह तक कर सकते हैं।
सावधानियां :-
सात दिन का छाए में रखा हुआ गोबर का प्रयोग करें।
गोमूत्र किसी धातु के बर्तन में न ले या रखें।
छिड़काव :-
एक बार खेत जुताई के बाद घन जीवामृत का छिड़काव कर खेत तैयार करें।
(ब) जीवामृत : (एक एकड़ हेतु)
सामग्री :-
1. 10 किलोग्राम देशी गाय का गोबर
2. 5 से 10 लीटर गोमूत्र
3. 2 किलोग्राम गुड या फलों के गुदों की चटनी
4. 2 किलोग्राम बेसन (चना, उड़द, मूंग)
5. 200 लीटर पानी
6. 50 ग्राम मिट्टी
बनाने की विधि
सर्वप्रथम कोई प्लास्टिक की टंकी या सीमेंट की टंकी लें फिर उस पर 200 ली. पानी डाले। पानी में 10 किलोग्राम गाय का गोबर व 5 से 10 लीटर गोमूत्र एवं 2 किलोग्राम गुड़ या फलों के गुदों की चटनी मिलाएं। इसके बाद 2 किलोग्राम बेसन, 50 ग्राम मेड़ की मिट्टी या जंगल की मिट्टी डालें और सभी को डंडे से मिलाएं। इसके बाद प्लास्टिक की टंकी या सीमेंट की टंकी को जालीदार कपड़े से बंद कर दे। 48 घंटे में चार बार डंडे से चलाएं और यह 48 घंटे बाद तैयार हो जाएगा।
अवधि प्रयोग :
इस जीवामृत का प्रयोग केवल सात दिनों तक कर सकते हैं।
सावधानियां :-
प्लास्टिक व सीमेंट की टंकी को छाए में रखे जहां पर धूप न लगे।
गोमूत्र को धातु के बर्तन में न रखें।
छाए में रखा हुआ गोबर का ही प्रयोग करें।
छिड़काव
जीवामृत को जब पानी सिंचाई करते है तो पानी के साथ छिड़काव करें अगर पानी के साथ छिड़काव नहीं करते तो स्प्रे मशीन द्वारा छिड़काव करें।
पहला छिड़काव बोआई के 15 से 21 दिन बाद 5 ली. छना जीवामृत 100 ली. पानी में घोल कर।
दूसरा छिड़काव बोआई के 30 से 45 दिन बाद 5 ली. छना जीवामृत 100 ली. पानी में घोल कर।
तीसरा छिड़काव बोआई के 45 से 60 दिन बाद 10 ली. छना जीवामृत 150 ली. पानी में घोल कर।
60 से 90 दिन की फसलों में
चौथा छिड़काव बोआई के 60 से 75 दिन बाद 20 ली. छना जीवामृत 200 ली. पानी में घोल कर ।
90 से 180 दिन की फसलों में
चौथा छिड़काव बोआई के 60 से 75 दिन बाद 10-15 ली. छना जीवामृत 150 ली. पानी में घोल कर। पांचवा छिड़काव बोआई के 75 से 0 दिन बाद 20 ली. छना जवामृत 200 ली. पानी में घोल कर।
छठा छिड़काव बोआई के 90 से 120 दिन बाद 20 ली. छना जीवामृत 200 ली. पानी में घोल कर।
सातवां छिड़काव बोआई के 105 से 150 दिन बाद 25 ली. छना जीवामृत 200 ली. पानी में घोल कर।
आठवां छिड़काव बोआई के 120 से 165 दिन बाद 25 ली. छना जीवामृत 200 ली. पानी में घोल कर। नौवां छिड़काव बोआई के 135 से 180 दिन बाद 25 ली. छना जीवामृत 200 ली. पानी में घोल कर।
दसवां छिड़काव बोआई के 150 से 200 दिन बाद 30 ली. छना जीवामृत 200 ली. पानी में घोल कर।
कीटनाशी दवाएं
नीमास्त्र
(रस चूसने वाले कीट एवं छोटी सुंडी इल्लियां के नियंत्रण हेतु) सामग्री :-
सर्वप्रथम प्लास्टिक के बर्तन पर 5 किलोग्राम नीम की पत्तियों की चटनी, और 5 किलोग्राम नीम के फल पीस व कूट कर डालें एवं 5 लीटर गोमूत्र व 1 किलोग्राम गाय का गोबर डालें इन सभी सामग्री को डंडे से चलाकर जालीदार कपड़े से ढक दें। यह 48 घंटे में तैयार हो जाएगा। 48 घंटे में चार बार डंडे से चलाएं।
अवधि प्रयोग :- नीमास्त्र का प्रयोग छः माह कर सकते है।
सावधानियां :-
1.छाये में रखे धूप से बचाएं।
2. गोमूत्र प्लास्टिक के बर्तन में ले या रखें।
छिड़काव :-
100 लीटर पानी में तैयार नीमास्त्र को छान कर मिलाएं और स्प्रे मशीन से छिड़काव करें।
ब्रम्हास्त्र
(अन्य कीट और बड़ी सूंडी इल्लियां)
सामग्री :-
1. 10 लीटर गोमूत्र
2. 3 किलोग्राम नीम की पत्ती की चटनी
3. 2 किलोग्राम करंज की पत्तों की चटनी
4. 2 किलोग्राम सीताफल पत्ते की चटनी
5. 2 किलोग्राम बेल के पत्ते
6. 2 किलोग्राम अंडी के पत्ते की चटनी
7. 2 किलोग्राम धतूरा के पत्ते की चटनी
बनाने की विधि :-
इन सभी सामग्री में से कोई भी पांच सामग्री के मिश्रण को गोमूत्र में मिट्टी के बर्तन पर डाल कर आग में उबाले जैसे चार उबले आ जाए तो आग से उतारकर 48 घंटे छाए में ठंडा होने दें। इसके बाद कपड़े से छानकर भंडारण करे।
अवधि प्रयोग:-
ब्रह्मास्त्र का प्रयोग छः माह तक कर सकते हैं।
सावधानियां :-
भंडारण मिट्टी के बर्तन में करें।
गोमूत्र धातु के बर्तन में न रखे।
छिड़काव :-
एक एकड़ हेतु 100 लीटर पानी में 3 से 4 लीटर ब्रह्मास्त्र मिला कर छिड़काव करें।
अग्नी अस्त्र
(तना कीट फलों में होने वाली सूंडी एवं इल्लियों के लिए)
सामग्री :-
1. 20 लीटर गोमूत्र
2. 5 किलोग्राम नीम के पत्ते की चटनी3. आधा किलोग्राम तम्बाकू का पाउडर
4. आधा किलोग्राम हरी तीखी मिर्च
5. 500 ग्राम देशी लहसुन की चटनी
बनाने की विधि :-
उपयुक्त ऊपर लिखी हुई सामग्री को एक मिट्टी के बर्तन में डालें और आग से चार बार उबाल आने दें। फिर 48 घंटे छाए में रखें। 48 घंटे में चार बार डंडे से चलाएं।
अवधि प्रयोग :-
अग्नी अस्त्र का प्रयोग केवल तीन माह तक प्रयोग कर सकते हैं।
सावधानियां :-
मिट्टी के बर्तन पर ही सामग्री को उबल आने दे।
छिड़काव :-
5 ली. अन्गी अस्त्र को छानकर 200 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे मशीन या नीम के लेवचा से छिड़काव करें।
फंगीसाइड फफूंदनाशक दवा :-
100 लीटर पानी में 3 लीटर खट्टी छाछ (मट्ठा) का खूब अच्छी तरह मिलाकर फसल में छिड़काव करें।
तशपर्णी अर्क
(सभी तरह के रस चूसक कीट और सभी इल्लियों के नियंत्रण के लिए)
सामग्री :-
1. 200 लीटर पानी
2. 2 किलोग्राम करंज के पत्ती
3. 2 किलोग्राम सीताफल पत्ते
4. 2 किलोग्राम धतूरा के पत्ते
5. 2 किलोग्राम तुलसी के पत्ते
6. 2 किलोग्राम पपीता के पत्ती
7. 2 किलोग्राम गेंदा के पत्ते
8. 2 किलोग्राम गाय का गोबर
9. 500 ग्राम तीखी हरी मिर्च
10. 200 ग्राम अदरक या सोंठ
11. 5 किलोग्राम नीम के पत्ती
12. 2 किलोग्राम बेल के पत्ते
13. 2 किलोग्राम कनेर के पत्ती
14. 10 लीटर गोमूत्र
15. 500 ग्राम तम्बाकू पीस के या काटकर
16. 500 ग्राम लहसुन
17. 500 ग्राम हल्दी पीसी
बनाने की विधि :-
सर्वप्रथम एक प्लास्टिक के ड्रम में 200 ली. पानी डाले फिर नीम, करंज, सीताफल, धतूरा, बेल, तुलसी, आम, पपीता, कंजरे, गेंदा की पत्ती की चटनी डाले और डंडे से चलाएं फिर दूसरे दिन तम्बाकू, मिर्च, लहसुन, सोठ, हल्दी डाले फिर डंडे से चलाकर जालीदार कपड़े से बंद कर दें और 40 दिन छाए में रखा रहने दे, परंतु सुबह शाम चलाएं।
अवधि प्रयोग :-
इसको छः माह तक प्रयोग कर सकते हैं।
सावधानियां :-
1. इस दशपर्णी अर्क को छाये में रखें।
2. इसको सुबह शाम चलना न भूले।
छिड़काव :-
200 ली. पानी में 5 से 8 ली. दशपर्णी अर्क मिलाकर छिड़काव करें।
संदेश
किसान भाइयों /बहनों अपना क्षेत्र कम पानी अर्थात सूखे वाला क्षेत्र है इसमें रासायनिक खेती और महंगी होती जाएगी तथा पैदावार (उत्पादन) घटती जाएगी इसमें पूरी फसल समाप्त होने के खतरे ज्यादा है रासायनिक खेती में रोग स्वयं लगते हैं अपनी खेती खतरे में है इसे बचाएं जीरों बजट/प्राकृतिक खेती अपनाएं।
(तना कीट फलों में होने वाली सूंडी एवं इल्लियों के लिए)
सामग्री :-
20 लीटर गोमूत्र
5 किलोग्राम नीम के पत्ते की चटनी
आधा किलोग्राम तम्बाकू का पाउडर
आधा किलोग्राम हरी तीखी मिर्च
500 ग्राम देशी लहसुन की चटनी
बनाने की विधि :- उपयुक्त ऊपर लिखी हुई सामग्री को एक मिट्टी के बर्तन में डालें और आग से चार बार उबाल आने दें। फिर 48 घंटे छाए में रखें। 48 घंटे में चार बार डंडे से चलाएं।
अवधि प्रयोग :- अग्नी अस्त्र का प्रयोग केवल तीन माह तक प्रयोग कर सकते हैं।
सावधानियां :- मिट्टी के बर्तन पर ही सामग्री को उबल आने दे।
छिड़काव :- 5 ली. अन्गी अस्त्र को छानकर 200 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे मशीन या नीम के लेवचा से छिड़काव करें।
Agni Astra (Stemworm, pest occurring in fruits ) Contents: – 20 liters of cow urine 5 kg neem leaves powder ½ kg green hot chili sauce half kilogram 500 grams of tobacco native garlic sauce How to ? : – suitable to the above mentioned ingredients in a clay pot, let boil and add the fire four times. Keep in shade again 48 hours. Play 48 hours four times with a stick. Duration of use: – the Agni Astra can only use up to three months. Precautions: – clay pots boiling on letting the material. Spraying: – 5 Ltr. Angi filter 200 liters of water mixed with the weapon or spray machine, spraying of neem Levcha