औषधीय पौधों की खेती से आजीविका सृजन की सोच तभी हकीकत की जमीन पर उग सकती है, जब इसकी खेती की राह में आने वाली बुनियादी अड़चनों की पड़ताल कर प्राथमिकता से उनके हल खोजे जाएं। इस विजन में कोई शक नहीं कि औषधीय पौधों की खेती न केवल भारत की कृषि आर्थिकी का चेहरा बदल कर रोजगार एवं आजीविका सृजन के लिए वरदान साबित हो सकती है, बल्कि आयुर्वेद में भारत को दुनिया का सिरमौर बना सकती है। असीम संभावनाएं के इस आकाश में ऊंची उड़ान तभी भरी जा सकती है,जब धरातल की जमीन पर पूरी तैयारी हो।
पोस्ट हार्वेटिंग तकनीक
वर्तमान में आलम यह है कि जड़ी- बूटियों की खेती के लिए उदार वित्तीय अनुदान तो दिया जा रहा है, लेकिन अगर बात बीज व क्वालिटी प्लांटिंग मैटीरियल की हो तो हमारे हाथ खाली हैं। हम बीज और पौध का प्रबंध करना भूल गए हैं। जिन औषधीय पौधों की बाजार में मांग है, उनकी वैल्यू एडिशन के लिए उपकरणों की व्यवस्था भी अभी तक दूर की कौड़ी है। पोस्ट हार्वेटिंग तकनीकों की कमी यहां साफ खलती है।
मार्केटिंग मकैनिज्म
अगर कोई किसान जड़ी- बूटियों की खेती करने की पहल करे भी तो उत्पाद को बेचने की व्यवस्था इतनी लचर है कि उसे बेचारा बनना पड़ता है। अभी तक न जड़ी- बूटियों के न्यूनतम मूल्य घोषित करने के प्रस्ताव सिरे चढ़े हैं और न इन उत्पादों की ब्रिकी के लिए विशेष मंडियों अथवा कलेक्शन सेंटर की कोई व्यवस्था हो पाई है। ऐसे में जड़ी- बूटियों के उत्पादकों को बिचौलियों के हाथों लुटने को मजबूर होना पड़ रहा है। आयुर्वेद दवाईयां बनाने वाली कंपनियां भी किसानों की उपज को न्यूनतम मूल्य पर खरीद कर उनके शोषण में कहीं पीछे नहीं हैं।
लीगल प्रिक्योरमेंट सार्टिफिकेट
पहाड़ों से लुप्त और लुप्तप्राय हो रहे दिव्य औषधीय पौधों के संरक्षण और उनकी ख्ेाती करने में अलग तरह की समस्याएं हैं। यहां लीगल प्रिक्योरमेंट सार्टिफिकेट की बाध्यता की शर्त किसानों की राह की सबसे बड़ी रूकावट है। जड़ी- बूटियों की खेती का जिम्मा तो आयुष विभाग के पास है, लेकिन लीगल प्रिक्योरमेंट सार्टिफिकेट वन विभाग की ओर से जारी किया जाता है। यह किसी से छुपा नहीं है कि इन दोनों विभागों में आपसी तालमेल के अभाव में यह सार्टिफिकेट हासिल करना किसानों के लिए कितनी टेढ़ी खीर है।
जमीन के मुद्दे
हिमालयी क्षेत्र जहां उच्च मूल्य वाले औषधीय पौधों की खेती हो सकती है, वहां के किसानों का दुखड़ा दूसरा है। इन क्षेत्रों में जहां ज्यादातर भूमि वन भूमि है, वहीं किसानों के पास छोटी भू जोतें हैं। वन भूमि पर जड़ी- बूटियों की खेती के लिए स्थानीय लोगों को अधिकार देने जैसे पेचीदा मुद्दों के हल खोजना अभी तक बाकि हैं।
किसान की मदद की जरूरत
बेशक आयुर्वेद का बाजार तेजी से आकार ले रहा है व जड़ी- बूटियों की मांग तेजी से बढ़ रही है। हिमालय की दिव्य औषधियां अपनी गुणवता के चलते आयुर्वेद उद्योग की पहली पंसद बन चुकी हैं, लेकिन जड़ी- बूटियों की वैल्यू चेन की पहली पायदान पर खड़े किसान के सामने समस्याओं का पहाड़ खड़ा है। अगर इस वैल्यू चेन की नींव ही खोखली है तो फिर इस पर आयुर्वेद उद्योग की बुलंद इमारत कैसे खड़ी हो सकती है? किसान को नजरअंदाज करना आयुर्वेद उद्योग के भविष्य के लिए संकट की बात है। जड़ी-बूटियों की खेती से लेकर उनके विपणन की व्यवस्था में किसान के हितों की पैरवी किए बिना आगे की सोचना कपोल कल्पना ही होगी।
तालमेल जरूरी
जैव विविधिता के संरक्षण व जड़ी- बूटियों की मूल्य श्रृखंला को मजबूत करने के लिए सबसे पहले तो आयुष विभाग के साथ वन, स्वास्थ्य, कृषि व बागवानी, राजस्व और सहकारिता जैसे कई विभागों को एकजुट होकर संाझा प्रयास करने होंगे। इसमें दो राय नहीं कि किसानों की कृषि आय को दोगुणा करना संभव है, लेकिन इसके लिए उन्हें औषधीय पौधों की खेती की ओर मोडऩा होगा। किसान इस तरफ मुड़ेंगे तभी, जब उन्हें लगेगा कि उनके लिए फायदे का सौदा है। आखिर में इतना ही कहूंगा कि पहले खोजिए हल, तभी होगा सुनहरा कल।
green manure,उत्पादकता बढ़ाने में हरी खाद का प्रयोग
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परिचय
मृदा उर्वरता एवं उत्पादकता बढ़ाने में हरी खाद का प्रयोग अति प्राचीन काल से आ रहा है। सघन कृषि पद्धति के विकास तथा नकदी फसलों के अन्तर्गत क्षेत्रफल बढ़ने के कारण हरी खाद के प्रयोग में निश्चय ही कमी आई, लेकिन बढ़ते ऊर्जा संकट, उर्वरकों के मूल्यों में वृद्धि तथा गोबर की खाद जैसे अन्य कार्बनिक स्त्रोतों की सीमित आपूर्ति से आज हरी खाद का महत्व और भी बढ़ गया है। दलहनी एवं गैर दलहनी फसलों को उनके वनस्पतिक वृद्धि काल में उपयुक्त समय पर मृदा उर्वरता एवं उतपादकता बढ़ाने के लिए जुताई करके मिट्टी में अपघटन के लिए दबाना ही हरी खाद देना है। भारतीय कृषि में दलहनी फसलों का महत्व सदैव रहा है। ये फसलें अपने जड़ ग्रन्थियों में उपस्थित सहजीवी जीवाणु द्वारा वातावरण में नाइट्रोजन का दोहन कर मिट्टी में स्थिर करती है। आश्रित पौधे के उपयोग के बाद जो नाइट्रोजन मिट्टी में शेष रह जाती है उसे आगामी फसल द्वारा उपयोग में लायी जाती है। इसके अतिरिक्त दलहनी फसलें अपने विशेष गुणों जैसे भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ाने प्रोटीन की प्रचुर मात्रा के कारण पोषकीय चारा उपलब्ध कराने तथा मृदा क्षरण के अवरोधक के रूप में विशेष स्थान रखती है।
हरी खाद में प्रयुक्त दलहनी फसलों का महत्व:
दलहनी फसलों की जड़ें गहरी तथा मजबूत होने के कारण कम उपजाऊ भूमि में भी अच्छी उगती है। भूमि को पत्तियों एवं तनों से ढक लेती है जिससे मृदा क्षरण कम होता है। दलहनी फसलों से मिट्टी में जैविक पदार्थों की अच्छी मात्रा एकत्रित हो जाती है। हरी खाद के प्रयोग से मिट्टी नरम होती है, हवा का संचार होता है, जल धारण क्षमता में वृद्धि, खट्टापन व लवणता में सुधार तथा मिट्टी क्षय में भी सुधार आता है| भूमि को को इस खाद से मृदा जनित रोगों से भी छुटकारा मिलता है| किसानों के लिए कम लागत में अधिक फायदा हो सकता है, स्वास्थ और पर्यावरण में भी सुधार होता है| राइजोबियम जीवाणु की मौजूदगी में दलहनी फसलों की 60-150 किग्रा० नाइट्रोजन/हे० स्थिर करने की क्षमता होती है।दलहनी फसलों से मिट्टी के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में प्रभावी परिवर्तन होता है जिससे सूक्ष्म जीवों की क्रियाशीलता एवं आवश्यक पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि होती है।
हरी खाद हेतु फसलों का चुनाव :
हरी खाद के लिए उगाई जाने वाली फसल का चुनाव भूमि जलवायु तथा उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए। हरी खाद के लिए फसलों में निम्न गुणों का होना आवश्यक है।
हेतु फसल शीघ्र वृद्धि करने वाली हो।
हरी खाद के लिए ऐसी फसल होना चाहिए जिससे तना, शाखाएं और पत्तियॉ कोमल एवं अधिक हों ताकि मिट्टी में शीघ्र अपघटन होकर अधिक से अधिक जीवांश तथा नाइट्रोजन मिल सके।
फसलें मूसला जड़ों वाली हों ताकि गहराई से पोषक तत्वों का अवशोषण हो सके। क्षारीय एवं लवणीय मृदाओं में गहरी जड़ों वाली फसल अंतः जल निकास बढ़ाने में आवश्यक होती है।
दलहनी फसलों की जड़ों में उपस्थित सहजीवी जीवाणु ग्रंथियों वातावरण में मुक्त नाइट्रोजन को योगिकीकरण द्वारा पौधों को उपलब्ध कराती है।
फसल सूखा अवरोधी के साथ जल मग्नता को भी सहन करती हों
रोग एवं कीट कम लगते हो तथा बीज उत्पादन को क्षमता अधिक हो।
हरी खाद के साथ-2 फसलों को अन्य उपयोग में भी लाया जा सके।
हरी खाद के लिए दलहनी फसलों में सनई, ढैंचा, उर्द, मॅूग, अरहर, चना, मसूर, मटर, लोबिया, मोठ, खेसारी तथा कुल्थी मुख्य है। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश में जायद में हरी खाद के रूप में अधिकतर सनई, ढैंचा, उर्द एवं मॅूग का प्रयोग ही प्रायः प्रचलित है।
हरी खाद हेतु फसलें एवं उन्नतशील प्रजातियॉ
नरेन्द्र सनई-1 कार्बनिक पदार्थ से भरपूर भूमि में 45 दिन के बाद पलटने से 60-80 किग्रा०/हे० नाइट्रोजन प्रदान करने वाली शीघ्र जैव अपघटन पारिस्थितकीय मित्रवत 25-30 टन/हे० हरित जैव पदार्थ बीज उत्पादन क्षमता 16.0 कु०/हे० प्रति पौध अधिक एवं प्रभावी जड़ ग्रंथियॉ अम्लीय, एवं सामान्य क्षारीय भूमि के लिए सहनशील तथा हरी खाद के अतिरिक्त रेशे एवं बीज उत्पादन के लिए भी उपयुक्त।
पंत ढैंचा-1 कार्बनिक पदार्थों से भरपूर 60 दिन में हरित एवं सूखा जैव पदार्थ, प्रति पौध अधिक एवं प्रभावी जड़ ग्रन्थियॉ तथा अधिक बीज उत्पादन।
हिसार ढैंचा-1 कार्बनिक पदार्थो से भरपूर, 45 दिन में अधिक हरित एवं सूखा जैव पदार्थ उत्पादन, मध्यम बीज उत्पादन, प्रति पौध अधिक एवं प्रभावी जड़ ग्रन्थियॉ। उपरोक्त प्रजातियॉ वर्ष 2003 में राष्ट्रीय स्तर पर विमोचित की गयी है। इन प्रजातियों के बीज की उपलब्धता सुनिश्चित न होने पर सनई एवं ढैंचा की अन्य स्थानीय प्रजातियों का भी प्रयोग हरी खाद के रूप में किया जा सकता है।उर्वरक प्रबन्ध हरी खाद के लिए प्रयोग की जाने वाली दलहनी फसलों में भूमि में सूक्ष्म जीवों की क्रियाशीलता बढ़ाने के लिए विशिष्ट राइजोबियम कल्चर का टीका लगाना उपयोगी होता है। कम एवं सामान्य उर्वरता वाले मिट्टी में 10-15 किग्रा० नाइट्रोजन तथा 40-50 किग्रा० फास्फोरस प्रति हे० उर्वरक के रूप में देने से ये फसलें पारिस्थिकीय संतुलन बनाये रखने में अत्यन्त सहायक होती हैहरी खाद की फसलों की उत्पादन क्षमताहरी खाद की विभिन्न फसलों की उत्पादन क्षमता जलवायु, फसल वृद्धि तथा कृषि क्रियाओं पर निर्भर करती है। विभिन्न हरी खाद वाली फसलों की उत्पादन क्षमता निम्न सारणी में दी गयी है
हरी खाद वाली फसलों की उत्पादन क्षमता
फसल का नाम
हरे पदार्थ की मात्रा (टन प्रति हे.)
नाइट्रोजन का प्रतिशत
प्राप्त नाइट्रोजन
(किग्रा.प्रति हे.)
सनई
20-30
0.43
86-129
ढैंचा
20-25
0.42
84-105
उर्द
10-12
0.41
41-49
मूंग
8-10
0.48
38-48
ग्वार
20-25
0.34
68-85
लोबिया
15-18
0.49
74-88
कुल्थी
8-10
0.33
26-33
नील
8-10
0.78
62-78
हरी खाद देने की विधियॉ (इन सीटू)
हरी खाद की स्थानिक विधि:
इस विधि में हरी खाद की फसल को उसी खेत में उगाया जाता है जिसमें हरी खाद का प्रयोग करना होता है। यह विधि समुचित वर्षा अथवा सुनिश्चित सिंचाई वाले क्षेत्रों में अपनाई जाती है। इस विधि में फूल आने के पूर्व वानस्पतिक वृद्धि काल (40-50 दिन) में मिट्टी में पलट दिया जाता है। मिश्रित रूप से बोई गयी हरी खाद की फसल को उपयुक्त समय पर जुताई द्वारा खेत में दबा दिया जाता है।
हरी पत्तियों की हरी खाद:
इस विधि में हरी पत्तियों एवं कोमल शाखाओं को तोडकर खेत में फैलाकर जुताई द्वारा मृदा में दबाया जाता है। जो मिट्टी मे थोड़ी नमी होने पर भी सड जाती है। यह विधि कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उपयोगी होंती है।
हरी खाद की गुणवत्ता बढाने के उपाय
उपयुक्त फसल का चुनाव :
जलवायु एवं मृदा दशाओं के आधार पर उपयुक्त फसल का चुनाव करना आवश्यक होता है। जलमग्न तथा क्षारीय एवं लवणीय मृदा में ढैंचा तथा सामान्य मृदाओं में सनई एवं ढैंचा दोनों फसलों से अच्छी गुणवत्ता वाली हरी खाद प्राप्त होती है। मॅूग, उर्द, लोबिया आदि अन्य फसलों से अपेक्षित हरा पदार्थ नहीं प्राप्त होता है।
हरी खाद की खेत में पलटायी का समय:
अधिकतम हरा पदार्थ प्राप्त करने के लिए फसलों की पलटायी या जुताई बुवाई के 6-8 सप्ताह बाद प्राप्त होती है। आयु बढ़ने से पौधों की शाखाओं में रेशे की मात्रा बढ़ जाती है जिससे जैव पदार्थ के अपघटन में अधिक समय लगता है।
हरी खाद के प्रयोग के बाद अगली फसल की बुवाई या रोपाई का समय:
जिन क्षेत्रों में धान की खेती होती है वहॉ जलवायु नम तथा तापमान अधिक होने से अपघटन क्रिया तेज होती है। अतः खेत में हरी खाद की फसल के पलटायी के तुरन्त बाद धान की रोपाई की जा सकती है। लेकिन इसके लिए फसल की आयु 40-45 दिन से अधिक की नहीं होनी चाहिए। लवणीय एवं क्षारीय मृदाओं में ढैंचे की 45 दिन की अवस्था में पलटायी करने के बाद धान की रोपाई तुरन्त करने से अधिकतम उपज प्राप्त होती है।
समुचित उर्वरक प्रबन्ध:
कम उर्वरता वाली मृदाओं में नाइट्रोजनधारी उर्वरकों का 15-20 किग्रा०/हे० का प्रयोग उपयोगी होता है। राजोबियम कल्चर का प्रयोग करने से नाइट्रोजन स्थिरीकरण सहजीवी जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ जाती है।
हरी खाद वाली फसलें:
हरी खाद के लिए दलहनी फसलों में सनैइ (सनहेम्प), ढैंचा, लोबिया, उड़द, मूंग, ग्वार आदि फसलों का उपयोग किया जा सकता है। इन फसलों की वृद्धि शीघ्र, कम समय में हो जाती है, पत्तियाँ बड़ी वजनदार एवं बहुत संख्या में रहती है, एवं इनकी उर्वरक तथा जल की आवश्यकता कम होती है, जिससे कम लागत में अधिक कार्बनिक पदार्थ प्राप्त हो जाता है। दलहनी फसलों में जड़ों में नाइट्रोजन को वातावरण से मृदा में स्थिर करने वाले जीवाणु पाये जाते हैं। अधिक वर्षा वाले स्थानों में जहाँ जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सनई का उपयोग करें, ढैंचा को सूखे की दशा वाले स्थानों में तथा समस्याग्रस्त भूमि में जैसे क्षारीय दशा में उपयोग करें। ग्वार को कम वर्षा वाले स्थानों में रेतीली, कम उपजाऊ भूमि में लगायें। लोबिया को अच्छे जल निकास वाली क्षारीय मृदा में तथा मूंग, उड़द को खरीफ या ग्रीष्म काल में ऐसे भूमि में ले जहाँ जल भराव न होता हो। इससे इनकी फलियों की अच्छी उपज प्राप्त हो जाती है तथा शेष पौधा हरी खाद के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है।
डॉ. शिशुपाल सिंह*, शिवराज सिंह1, डॉ विष्णु दयाल राजपूत2रविन्द्रकुमारराजपूत3,
*प्रयोगशाला प्रभारी, कार्यालय मृदा सर्वेक्षण अधिकारी, वाराणसी मंडल, वाराणसी,
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अनार की खेती के लिए मौसम खुश्क गर्मी और सर्दी अच्छी रहती है। अनार के लिए मैंरा मिट्टी अच्छी रहती है। मध्यम और हल्की काली मिट्टी भी अच्छी होती है। अनार खारी और सिल्ली ज़मीन मैं भी हो सकता है। ये पौध सदाबहार होता है।
अनार की उन्नत किस्में :-
गणेश अनार :-इस किस्म के बूटे सदैव हरे रहते हैं। झाड़ीदार होते हैं और जल्दी फल देते हैं। फल दरमियाने अकार के होते हैं। छिलका पीला और गुलाबी रंग का होता है। दाने गुलाबी और सफ़ेद रंग के होते हैं। बीज खाने में नरम और मीठे होते हैं। मीठे की मात्र तेरह प्रतिशत होती है। और खटास आधा प्रतिशत। ये मध्य अगस्त में पक जाता है। इसकी पैदवाद छेह से सात तन प्रति एकर होती है।
कंधारी अनार :- इसके पत्ते झड़ जाते हैं और पौधे भरवे होते हैं। और सीधे होते हैं। ये किस्म हर साल फसल देती है। इनका झाड़ माध्यम होता है। इसके बीज दरमियाने और सख्त होते हैं। इनमे बारह प्रतिशत मिठास और 0.65 % खटास होती है। ये एक एकर में चार से पांच टन होती है। अच्छे अकार के फल प्रपात करने के लिए तुड़वाई अप्रैल के लास्ट मैं करनी चाहिए।
अनार के बूटे दसमबर में कलमो से तैयार होते हैं अच्छे नतीजे के लिए कलमो को एक सो पी पी एम आई बी ए के घोल से चौबीस घंटे के लिए डुबो के लगाए।
बूटे लगाने का समय :- नवंबर दसमबर में एक मीटर व्यास के खड्डे में देसी खाद मिला कर भरे। गणेश किस्म तीन बाई तीन मीटर और कंधारी चार बाई चार मीटर की दूरी पर लगाए।
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सुधार और काट छांट :- तीस सेंटीमीटर तक एक तना ही रखें। मैन शाखाएं धरती को नहीं लगनी चाहिए। सुखी हुई और बीमारी युक्त टहनी को काटना चाहिए और तने से निकले पदसुए भी काटने चाहिए।
अनार के लिए खादें :- एक साल की उम्र के हिसाब पर हर बूटे को पांच छेह किलो देसी खाद दिसंबर में डाले। इस तरह से बीस ग्राम नाइट्रोजन प्रति बूटा प्रति साल के हिसाब से दो बराबर हिस्सों में डालें एक हिस्सा मार्च और दूसरा अप्रैल में डाले।
अनार की सिंचाई :- सर्दिओ में लम्बे समय तक खुश्क मौसम दैरान पानी लगाना चाहिए। जब की गर्मिओं में दस पंद्रह दिनों बाद पनि लगाए।
पौध सुरक्षा :-
कीट :- तेला ये पत्तों को फूलों को और फलों का रस चूस लेता है। हमले वाले हिस्से बेढंगी शकल के हो जाते हैं। इसके काटने से फल उल्ली से भर जाते हैं। इस से पत्तों की खुराक पैदा करने की शक्ति कम हो जाती है। इसको रोकने के लिए उपयुक्त दवाइओं का इस्तेमाल करना चाहिए जो मनुष्य के लिए खतरनाक न हो।
फल छेदक सुंडी :- ये मादा फूलों और फलों में अंडे देता है और फल और फूलों का गुद्दा खा जाती है। इसका हमला ज्यादा मई जून में होता है।
काले धब्बे और फल का गलना :- ये बीमारी बेक्टिरिा से होती है। काले धब्बे फलों पर आ जाते हईं। इसका फैलाव नमि के बढ़ने से होता है।
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नाइट्रोजन की कमी :- इसकी कमी से प्रोटीन और स्टार्च कम तैयार होता है। इसकी वजह से पौध कमज़ोर होता है। पत्ते पीले पड़ते हैं। पौधे पर फल और फूल देर से आते हैं।
फ़ॉस्फ़ोरस की कमी :- पौधों की वृद्धि कम हो जाती है। पौधे नीले या लाल रंग के हो जाते हैं। फल टूट क्र गिर जाते हैं। टमाटर और तम्बाकू के पत्ते मूड जाते हैं। और पौध कमज़ोर हो कर सूख जाता है।
कैल्शियम की कमी :- नए पत्ते मर जाते है या उसके पत्ते टेढ़े मेढ़े हो जाते हैं। पत्तिओं परब केसरी रंग के धब्बे पद जाते हैं। जड़ कमज़ोर हो जाती है। पौधों का आगभग मर जाता है।
पोटाशियम की कमी :- अतयधिक कमी की वजह जसे पौध मर जाता है। साधारण कमी की वजह से पौध का तन मूड जाता है। पत्तों भूरे रंग की हो क्र मूड जाती है। पौधे की गति dheemi हो जाती है और जड़ें कमज़ोर हो जाती हैं।
मैगनेशियम की कमी :- प्तत्तिओ में क्लोरोसिस हो क्र पत्तों पीली पड़ जाती है। ज्यादा कमी से पत्तिअं पीली पड़ जाती है। जड़ें कमज़ोर हो क्र पौध सूख जाता है।
ज़िंक की कमी :- पत्तिओं में नेक्रोसिस हो जाता है। पत्तों छोटे अकार की और टेढ़ी मेडी हो जाती है। पुराणी पत्तिओ के कोने सफेद हो जाते हैं। फल फूल और बीज का अकार छोटा हो जाता है।
कॉपर की कमी :- तने की बधतर सड़ जाती है। फूल झड़ने लग जाते हैं। पौधे का अगभव रुक जाता है। और पौधे मर जाते हैं। पत्तों भूरे रंग की हो जाती है और नै पत्तों पीली हो जाती हैं।
मेलिबदेंम की कमी :- पत्तों पीली पद जाती है। टमाटर की पतिो मैं क्लोरोसिस हो जाता है। और बदतर रुक जाती है।
मैगनीज की कमी :- पत्तिओं को क्लोरोसिस हो जाता है। जड़ें कमज़ोर हो जाती हैं। गेहूं और मक्के के पत्तों पर ग्रे रंग के धब्बे हो जाते हैं। और बाद मैं पत्ते भूरे हो कर केसरी हो जाते हैं।
आयरन की कमी :- अतयधिक कमी होने से पत्तों सफ़ीद हो जाती हैं। पत्तिओं में क्लोरोसिस हो जाता है और पीलापन बढ़ जाता है।
बोरान की कमी :- तने की बधतार रुक जाती है। अगभग काल हो जाता है। पुराणी पत्तों जल्दी झड़ जाती हैं। फल कम लगते हैं और फट क्र गिर जाते हैं।
कुदरती तरीके से कीट और सुंडी को कैसे मारें ? ਕੁਦਰਤੀ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ ਕੀੜੇ ਤੇ ਸੁੰਡੀਆਂ ਨੂ ਓਰ੍ਗੇਨਿਕ ਫਸਲ ਤੋਂ ਕਿਵੇ ਮਾਰਿਆ ਜਾਵੇ ? organic way to control pest in organic farming
दोस्तो हमारे पास आर्गेनिक फार्मर्स का एक ग्रुप है जो पुरे भारत में हमारे सिद्धांतों के हिसाब से आर्गेनिक खेती करते हैं और ज़ेहर मुक्त खेती उत्पादन करते है। उसके प्रोडक्ट जैसे की गेहूं , चावल दाल सब्ज़िया लेने के लिए अपनी जानकारी हमें नीचे दिए फार्म मैं भर कर भेजें धन्यवाद
Dear friends we have a group of organic farmers .who produce poison less farming who meet our terms and condition with food test report .
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केला सेहत के लिए बहुत ही अच्छा फल है। इसमें वितमिल के (K) होता है जो की बल्ड प्रेशर के रोगी के लिए दवाई का काम करता है। इसमें कॉलेस्ट्रॉल और सोडियम की मात्र बहूत कम होती है। इसके इलवा ये जोड़ों के दर्द से भी रहत दिलाता है किओकि ये यूरिक एसिड नहीं बनता। इसमें करबोहिदृट्स की मात्र बहुत जियादा होती है। जो की छोटे बच्चों के लिए बहुत ही लाभदायक होता है।
केला आम तौर पे दक्षिण भारत की फसल है। अगर टिशू कल्चर विधि से तैयार ग्रैंड नेंन किस्म के बुटे सही समय पर सर्दी पहले लगा सकते हैं। टिशू कल्चर से पैदा बूटा जल्दी होता है और फल भी जियादा देता है।
ज़मीन कैसी हो ?
केले की कष्ट आम तौर पर साढ़े छेह से साढ़े सात पी एच, की मिट्टी में। जिसमे नमी की ममत्र जियादा हो कर सकते हैं। यह ज़मीन का खरापन साढ़े आठ पी एच, तक सेहन कर सकता है। केले की खेती के लिए मेरा पदारथ भरपूर ज़मीन बहुत ही अच्छी होती है। केले की जड़ जायदा नीचे नहीं होती इस लिए पनि की निकासी होना बहुत जरूरी है।
केले की किस्में :-
पंजाब के लिए ग्रैंड नेंन सीड बहुत ही अच्छा होता है। जिसका बूटा सात से आठ फुट उच्च होता है। इसका एक गुच्छा अठारह से बीस किलो का होता है। फल की मोटाई चौबीस सेंटीमीटर और लम्बाई पेंतीस सेंटीमीटर होती है। जो की बाजार मैं अच्छा मोल देता है।
केला लगने की विधि :- टिशू कल्चर से तैयार तीस सेंटीमीटर के पौधे फरबरी के आखिर और मार्च के स्टार्ट में लगते हैं। इनको छे फुट बए छे फुट में लगन चाहिए। बूटा लगने से पहले दो बाई दो के खड्डे कर लें और N.P.K. (12:32:16) की मात्र से भर दें।
खाद :- केले के बूते को खाद की बहुत जियादा जरूरत पड़ती है। केले को ज़्यादातर न्यट्रोजन और पोटास ततवू से भोजन लेना होता है। पहले चार से छे हफगते में जितने जियादा पत्ते आएंगे उतना ही गुच्छा जियादा बड़ा होगा। पोटाशियम फल जल्दी और जियादा पैदा करने में मद्दद करता है। उत्तरी भारत मैं ये मात्रा नब्बे ग्राम फ़ॉस्फ़ोरस दो सो ग्राम न्यट्रोजन और दो सो ग्राम पोटाशियम प्रति बूटा जरूरी मिलना चाहिए। मार्च महीने में लगे पौधे की खाद इस तरह होनी चाहिए।
फरबरी मार्च प्रति बूटा प्रति ग्राम
यूरिया
डी आ पी। 190
पोटाश
मई प्रति बूटा प्रति ग्राम
यूरिया 60
डी आ पी।
पोटाश 60
जून प्रति बूटा प्रति ग्राम
यूरिया 60
डी आ पी।
पोटाश 60
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जुलाई प्रति बूटा प्रति ग्राम
यूरिया 80
डी आ पी।
पोटाश 70
Whatsapp Help 9814105671
अगस्त प्रति बूटा प्रति ग्राम
यूरिया 80
डी आ पी।
पोटाश 80
समबर प्रति बूटा प्रति ग्राम
यूरिया 80
डी आ पी।
पोटाश ८०
सिंचाई :- केले के बूते को जियादा नमि चाहिए होती है। थोड़ी सी पनि की कमी भी इसकी फसल के अकार को खतरा पैदा करती है। अगर जियादा पनि हो जाये तो तना भी टूट जाता है।
फरबरी मार्च हफ्ते मैं एक बार
मई जून चार से चेह दिन में
जुलाई के बाद बारिश मैं। सात से दस दिन बाद।
दसमब से फरबरी पंद्रह दिन बाद
पौधे का जड़ से फूटना एक गम्भीर समस्या है। अगर ये फुट जाते हैं तो इनकी छटनी करनी चाहिए। सितम्बर तक सर एक ही अच्छा फुटाव वाला पौध रखें।
कांट छंट :- फल के साथ अगर कोई पते लगते हैं या कोई अन्य घास फुस हो तो कटनी जरूरी है।
पौधे की जड़ों में मिट्टी लगते रहना चाहिए। तीन चार महीने के अंतराल पर। दस से बारह इंच मिटटी लगनी चाहिए और फलदार गुच्छों को सहारा भी देना चाहिए इस से फल की गुणवत्ता बानी रहती है।
सर्दिओ से बचाव :- केले का बूटा कोहरा बिलकुल सेहन नहीं कर पाता .केले के फ्लो को सूखे पाटों से या पॉलीथिन से ढके और नीचे को खुल रखें किओंकी फल ने भी बढ़ना होता है। फरबरी मैं पोलयथिीं या पत्ते उतर दें।
अगर केले को सितम्बर में लगाया जाये तो पौधों हो प्रालि या किसी अन्य चीज से कोहरे से बचाव के लिए धक दें।
तुड़वाई :- केले को फल सितम्बर अक्टूबर में आ जाता है। पहले केला तिकोना होता है लेकिन जब ये गोल हो जाये तो समझ लेना की ये तुड़वाई के लिए तैयार है।
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एथलीन गैस :-
हरे रंग के तोड़े गए केले को एथलीन गैस से एक सो पी पी म। से चेंबर में जिसका तापमान सोलह से अठारह डिग्री हो में पकाया जाता है। अठारह डिग्री में केला चार दिन तक रह सकता है और बतीस डिग्री मैं ये दो दिन तक रह सकता है।
बीमारयां :-
कीड़े :- तम्बाकू की सूंडी।
तने का गलना
पत्ते और फल का झुलस रोग
इनके लिए टाइम टाइम पर सलाह लेते रहना चाहिए धन्यवाद।
किसान फसलें उगाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं लेकिन तमाम तरह के कीट , फसलों को चट कर जाते हैं। वैज्ञानिक विधि अपनाकर कीटनाशकों के बिना ही इनका नियंत्रण किया जा सकता है। इससे कीटनाशकों पर उनका खर्चघटेगा। खेत की मिट्टी से ज्यादा पैदावार पाने के लिए किसानों को कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। फसलें उगाने में उन्हें काफी पैसे भी खर्च करना पड़ता है। लेकिन मिटट्ी में पनपने वाले कीड़े-मकोड़े जैसे दीमक आदि फसलों को चट कर जाते हैं। इन कीटों से फसलों को सुरक्षित रखने के लिए भी कीटनाशकों पर किसानों को काफी खर्च करना पड़ता है। फसलें और कीट नियंत्रण के लिए वैज्ञनिक विधि अपनाकर किसान कीट नियंत्रण ज्यादा प्रभावी तरीके से कर सकते हैं।
कीटों का फसलों पर असर :
दीमक पोलीफेगस कीट होता है ,यह सभी फसलो को बर्बाद करता है | भारत में फसलों को करीबन 45 % से ज्यादा नुकसान दीमक से होता है। वैज्ञनिकों के अनुसार दीमक कई प्रकार की होती हैं। दीमक भूमि के अंदर अंकुरित पौधों को चट कर जाती हैं। कीट जमीन में सुरंग बनाकर पौधों की जड़ों को खाते हैं। प्रकोप अधिक होने पर ये तने को भी खाते हैं। इस कीट का वयस्क मोटा होता है, जो धूसर भूर रंग का होता है और इसकी लंबाई करीब भ्.भ्म् मिलीमीटर होती है। इस कीट की सूड़ियां मिटट्ी की बनी दरारों अथवा गिरी हुई पत्तियों के नीचे छिपी रहती हैं। रात के समय निकलकर पौधो की पत्तियों या मुलायम तनों को काटकर गिरा देती है। आलू के अलावा टमाटर, मिर्च, बैंगन, फूल गोभी, पत्ता गोभी, सरसों, राई, मूली,गेहू आदि फसलो को सबसे ज्यादा नुकसान होता है। इस कीट के नियंत्रण के लिए समेकित कीट प्रबंधन को अपनाना जरूरी है।
दीमक की रोकथाम :
दीमक से बचाव के लिए खेत में कभी भी कच्ची गोबर नहीं डालनी चाहिए। कच्ची गोबर दीमक का प्रिय भोजन होता है | इन कीटों के नियंत्रण के लिए
बीजों को बिवेरिया बेसियाना फफुद नासक से उपचारित किया जाना चाहिए। एक किलो बीजों को 20 ग्राम बिवेरिया बेसियाना फफुद नासक से उपचारित करके बोनी चाहिए
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2 किग्रा सुखी नीम की बीज को कूटकर बुआइ से पहले 1 एकड़ खेत में डालना चिहिए
नीम केक 30 किग्रा /एकड़ में बुआइ से पहले खेत में डालना चिहिए
1 किग्रा बिवेरिया बेसियाना फफुद नासक और 25 किग्रा गोबर की सड़ी खाद में मिलाकर बुआइ से पहले खेत में डालना चिहिए
1 किग्रा/एकड़ बिवेरिया बेसियाना फफुद नासक को आवश्यकतानुसार पानी में घोलकर मटके में भरकर ,निचले हिस्से में छिद्र करके सिचाई के समय देना चाहिए
दीमक नियंत्रण के देशी उपाय/ किसानो द्वारा प्रयोग के आधार पर /प्रयोग का
परिणाम :
मक्का के भुट्टे से दाना निकलने के बाद, जो गिण्डीयॉ बचती है, उन्हे एक मिट्टी के घड़े में इक्टठा करके घड़े को खेत में इस प्रकार गाढ़े कि घड़े का मुॅह जमीन से कुछ बाहर निकला हो। घड़े के ऊपर कपड़ा बांध दे तथा उसमें पानी भर दें। कुछ दिनाेंं में ही आप देखेगें कि घड़े में दीमक भर गई है। इसके उपरांत घड़े को बाहर निकालकर गरम कर लें ताकि दीमक समाप्त हो जावे। इस प्रकार के घड़े को खेत में 100-100 मीटर की दूरी पर गड़ाएॅ तथा करीब 5 बार गिण्डीयॉ बदलकर यह क्रिया दोहराएं। खेत में दीमक समाप्त हो जावेगी।
सुपारी के आकार की हींग एक कपड़े में लपेटकर तथा पत्थर में बांधकर खेत की ओर बहने वाली पानी की नाली में रख दें। उससे दीमक तथा उगरा रोग नष्ट हो जावेगा।
एक किग्रा निरमा सर्फ़ को 50 किग्रा बीज में मिलाकर बुआइ करने से दीमक से बचाव होता है
जला हुआ मोबिल तेल को सिचाई से समय खेत की ओर बहने वाली पानी की नाली से देने से दीमक से बचाव होता है
एक मिटटी के घड़े में 2 किग्रा कच्ची गोबर + १०० ग्राम गुड को 3 लीटर पानी में घोलकर ,जहा दीमक का समाश्या हो वहां पर इस प्रकार गाढ़े कि घड़े का मुॅह जमीन से कुछ बाहर निकला हो। घड़े के ऊपर कपड़ा बांध दे तथा उसमें पानी भर दें। कुछ दिनाेंं में ही आप देखेगें कि घड़े में दीमक भर गई है, इसके उपरांत घड़े को बाहर निकालकर गरम कर लें ताकि दीमक समाप्त हो जावे। इस प्रकार के घड़े को खेत में 100-100 मीटर की दूरी पर गड़ाएॅ तथा करीब 5 बार गिण्डीयॉ बदलकर यह क्रिया दोहराएं। खेत में दीमक समाप्त हो जावेगी।
जैविक पध्दति द्वारा जैविक कीट एवं व्याधि नियंत्रण के कृषकों के अनुभव :-
जैविक कीट एवं व्याधि नियंजक के नुस्खे विभिन्न कृषकों के अनुभव के आधार पर तैयार कर प्रयोग किये गये हैं, जो कि इस प्रकार हैं-
गौ-मूत्
गौमूत्र, कांच की शीशी में भरकर धूप में रख सकते हैं। जितना पुराना गौमूत्र होगा उतना अधिक असरकारी होगा । 12-15 मि.मी. गौमूत्र प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रेयर पंप से फसलों में बुआई के 15 दिन बाद, प्रत्येक 10 दिवस में छिड़काव करने से फसलों में रोग एवं कीड़ों में प्रतिरोधी क्षमता विकसित होती है जिससे प्रकोप की संभावना कम रहती है।
Whatsapp Helpline 9814388969
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